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इस जीतने की फ़िक्र को क्या कहिए


ध्रुव शुक्ल,वरिष्ठ पत्रकार

आजकल यही बात ज़्यादा चलती है कि सब अपनी विजय चाहते हैं, अपनी हार किसी को स्वीकार नहीं। सारे धर्म अपनी ध्वजा को, व्यापारी अपने मुनाफे को, नेता अपने अहंकार को, गुण्डे अपनी तलवार को, अफ़सर अपने रुआब को, अभिनेता अपने शबाब को, खिलाड़ी अपने छक्के को और मीडिया के लोग अपने हल्लाबोल को ऊंचा देखना चाहते हैं। कोई उस आदमी की तरफ़ देख ही नहीं रहा जो पीछे छूटता जा रहा है। वह अपनी उम्मीद बांधे तो आख़िर किससे ?

लोकतंत्र के घोड़े से जनता को नीचे गिराकर सब उस घोड़े को किसी भटकी हुई दिशा में हांक ले जाना चाहते हैं। तरह-तरह के मतान्ध कपटवेशधारी धर्म,मज़हब, रिलीजन, जात-पांत, लोभ और कटृटरता की दीवारें खड़ी करके लोकतंत्र के विनाश में भागीदार होकर गरज रहे हैं। बैर और हिंसा को बढ़ा रहे हैं। अपने ही देश के लोगों को अज्ञान की जड़ता में धकेलकर सब अपने-अपने विजयरथ दौड़ा रहे हैं जिनसे उड़ने वाली धूल की धुंध में देश अदृश्य होता जा रहा है।

देश में जीतने और हारने वालों का एक अलग तबका बन गया है जो जनजीवन को हराने पर आमादा है। कोई कैसे भी जीते, स्वार्थवश सब जीतने वाले एक हो जाते हैं और अपने बीच से किसी एक को अपना रिंग मास्टर चुनकर राजनीतिक इण्डियन सर्कस कंपनी चला रहे हैं। अपने-अपने राजनीतिक लालच के पिंजरों में क़ैद युवा चीते और बूढ़े शेर रिंग मास्टर की ग़ुलामी स्वीकार कर रहे हैं। यह खेल खत्म नहीं हो रहा बल्कि इसे तो लोकप्रिय बनाया जा रहा है। सोशल मीडिया पर कटाक्ष-क्रांति करने वाला समाज अन्याय के ख़िलाफ़ घर से बाहर निकलने में असमर्थ हो जाये, यही कुटिल उपाय करने में सब भ्रष्ट विजेता लगे हुए हैं।

कोई अपने जीवन के आयतन को नहीं नाप पा रहा। सब अपने आपसे इतने बाहर आ गये हैं कि अपने भीतर नहीं झांक पा रहे। अपनी तृष्णा को नापे बिना इतनी हवस पैदा होती जा रही है  कि जो किसी को शान्ति से जीने नहीं दे रही। लगता है कि सम्यक वार्त्ता के लिए तो कोई जगह ही नहीं बच रही। इस समय देश और दुनिया के शासकों की वाणी इतनी बिगड़ी हुई है कि उसमें सम्यक संवाद कैसे संभव हो सकेगा?

कहीं दूर से किसी भयानक युद्ध की ख़बरें भी आ रही हैं। सदियों से सतायी हुई और खदेड़ी जाती रही दो कौमें ही आपस में ऐसे लड़ रही हैं कि जैसे एक-दूसरे को बचने ही नहीं देंगी। युद्ध छिड़ जाने के बाद कब किसी की जीत हुई है। दोनों लड़-लड़कर हार जाते हैं। एक-दूसरे को हराकर आखिर कब तक जिया जा सकता है? यह किस दुनिया का सपना देखा गया है जिसमें बच्चे युद्ध की काली धुंध और आग के बीच घायल होकर बिलख रहे हैं? यह कैसी सभ्यता है कि जिसमें एक-दूसरे के साथ जीने की कला को विकसित करने में कोई बहुत बड़ी चूक हो गयी है! तभी तो इतने बड़े जीवन के प्रति संवेदनात्मक रूप से लापरवाह होकर उसे युद्ध और मौत से मुनाफ़े के धंधे में बदलते हुए शर्म नहीं आ रही।

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