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लोग रामायण पढ़ना भूल गये हैं,राम का अवतरण वोट मांगने के लिए नहीं हुआ


ध्रुव शुक्ल,वरिष्ठ पत्रकार

पूर्वज सदियों से याद दिलाते आये हैं कि रामायण पढ़ने से उजड़ी हुई अयोध्या फिर बस जाती है। यह अयोध्या धरती पर बसा कोई राज्य नहीं, मनुष्य का शरीर ही है। रामायण आह्वान करती है कि मनुष्य अनादि प्रकृति की श्रेष्ठतम उपलब्धि है। इसी मनुष्य के जागने, सोने और सपने देखने से यह विश्व प्रभावित होता है। रामायण आदमी को इंसां होने की वह कला सिखाती है जिसे साधकर वह समझ सके कि नि:स्वार्थ होकर परमार्थ को कैसे अपनाया जाता है। रामायण चुनाव जीतने की नहीं, सिर्फ़ अपने-अपने मन को जीतने की विधि बताती है।

रामायण के मनुजरूप राम किसी प्रजा पर अपने राज्य करने को नहीं, प्रजा के दुख का भार उठाने की भूमिका को चुनते हैं। वे प्रजा के पक्ष में अन्याय की शक्तियों का सामना करते हैं। रामायण कहती है कि हाथ-पांव वाले प्रत्येक मानव ब्रह्म में ही संसार का प्रतिनिधि होने की योग्यता है। इतिहास साक्षी है कि अपने स्वरूप को न समझ पाने के कारण ही जीवन में पराधीनता आती है और अन्याय की राजनीतिक शक्तियां मानव जाति को अपने रचे नरकों में बंदी बनाया करती हैं।

ऐतिहासिक अयोध्या को भले ही तात्कालिक राजनीति बाहरी जगमगाहट से रौशन कर दे पर वह मन के उस अंधेरे को नहीं मिटा पाती जिसके कारण देह की अयोध्या बार-बार उजड़ती है। मनुष्य का भाग्य केवल राजनीतिक मताधिकार से तब तक नहीं संवारा जा सकता जब तक कि वह पूरे जीवन के पक्ष में अपनी नि:स्वार्थ नागरिकता को खुद न पहचान ले। रामायण में हनुमान का चरित्र ऐसे ही नि:स्वार्थ नागरिक होने का प्रमाण है। 

हनुमान उस सीतारूपी अयोनिजा प्रकृति का पता लगाने का काज करते हैं जो राम से दूर ले जायी गयी है और जिसके बिना मनुजरूप राम के साथ सारे प्राणियों का जीवन चल नहीं सकता। नि:स्वार्थकपि इस काम के बदले राम से कुछ मांगते नहीं हैं। कोई रामदल बनाकर राम के नाम पर राजनीति भी नहीं करने लगते। हनुमान तो बस राममय होकर सबके हो जाते हैं। रामायण की कविता हमसे कहती है कि हम सब ही राम हैं और हमें एक-दूसरे से ही कई ज़रूरी काम हैं। हम अपने जीवन के काम बिना किसी राजनीतिक बिचौलिए के भी साध सकते हैं। एक-दूसरे के काम आकर ही रामराज्य को अपनी-अपनी देह की अयोध्या में बसा सकते हैं --- सबका जीवन छोटा-सा अवतार है।

जो अपनी रामकहानी भूल जाते हैं उन्हें ही वह राजनीति रचकर भरमाया जा सकता है जिसमें उनकी राम कहानी ढूंढे नहीं मिलती। उनकी तरफ़ से हनुमान की गदा राजनीतिक दल भांजने लगते हैं। नेता नकली धनुष लेकर काग़ज़ के बने रावण का वध करके जनता से राम के नाम पर वोट मांगने लगते हैं। यह तमाशा देखने वाले लोग यह जान ही नहीं पाते कि राम-रावण युद्ध तो उनके ही अंत:करण में चल रहा है और उन्हें अपनी ही इन दो प्रवृत्तियों के बीच से खुद अपने आपको चुनना है।

रामायण महाकाव्य किसी राजनीतिक दुर्विनियोजन के लिए नहीं रचा गया है। वह तो मनुष्य के जन्म और मृत्यु के बीच सार-असार को पहचानकर सबके जीवन के सहज नियोजन का मार्ग दिखाने वाली कथा है।

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