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अपना एमपी गज्जब है..100 दशकों पुरानी जड़ें,पौने उन्नीस साल की सरकार फिर भी भरोसे के 230 नाम नहीं?


अरुण दीक्षित,वरिष्ठ पत्रकार
                       पूरे एमपी में तीन दिन से इस बात की चौतरफा चर्चा है कि बीजेपी हाईकमान ने चुनाव के तीन  महीने पहले अपने 39 प्रत्याशी घोषित करके  कांग्रेस को पहली पटखनी दे दी है।कहा जा रहा है कि  कांग्रेस अभी अपने प्रभारी और पदाधिकारी बदलने में लगी है और बीजेपी चुनावी मैदान में उतर गई है।  यह चर्चा स्वाभाविक भी है।क्योंकि सरकारी खजाने के दम पर अपना आक्रामक चुनाव अभियान चला रही बीजेपी अभी तो कांग्रेस से आगे ही दिख रही है। एक तथ्य यह भी है कि बीजेपी का चुनाव अभियान केंद्र सरकार के निर्देशन में चल रहा है।केंद्रीय मंत्रिमंडल के आधा दर्जन से ज्यादा मंत्री मध्यप्रदेश में जुटे हुए हैं।ऐसे में 39 प्रत्याशियों की सूची का तीन महीने पहले आना कोई बड़ी बात नही है।सूची आने के बाद पार्टी के भीतर शुरू हुई सुगबुगाहट और बगावत की बातों को भी अगर अनदेखा किया जा सकता है!पार्टी नेतृत्व ने अपने ही मापदंड तोड़े हैं,उनको भी दरकिनार किया जा सकता है।
                     लेकिन एक ऐसा सवाल है जो अपना उत्तर मांग रहा है।यह सवाल भी पार्टी के भीतर से ही आया है! सवाल है कि क्या बीजेपी के पास प्रदेश में ऐसे 230 जुझारू कार्यकर्ता नही हैं जिन पर वह यह भरोसा कर सके कि वे विधानसभा चुनाव में सभी दलों पर भारी पड़ सकते हैं?वे अपनी विधानसभा सीट खुद जीत सकते हैं ? यह सब जानते हैं कि  एमपी को संघ और बीजेपी की नर्सरी कहा जाता है।वह कर्नाटक और महाराष्ट्र की तरह नही है।और न ही उत्तर प्रदेश जैसी स्थिति यहां कभी रही है।एमपी में जनसंघ और बीजेपी शुरू से ही कांग्रेस के मुकाबले में रहे हैं।खुद उसका दावा रहा है कि यहां उसकी जड़ें सबसे गहरी हैं।करीब दो दशक तक शासन करने के बाद तो इन जड़ों को और गहरा हो जाना चाहिए था!  पर बीजेपी की पहली सूची ही इस दावे पर सवाल उठाती है।उसने अपने "निष्ठावान, प्रतिबद्ध और देवतुल्य" कार्यकर्ताओं पर भरोसा न करके कुछ बाहरी लोगों को प्रत्याशी बना दिया है।सूची के मुताबिक कुछ सप्ताह पहले तक न्यायाधीश के पद पर काम कर रहे एक व्यक्ति को पार्टी ने अपना प्रत्याशी घोषित किया है।न्यायाधीश महोदय ने पिछले सप्ताह ही बीजेपी की सदस्यता ली थी। यही नहीं एक डाक्टर साहब सुबह तक सरकारी नौकर थे।नौकरी से इस्तीफा दिया।दोपहर में उनका नाम प्रत्याशी सूची में आ गया।उसके बाद उन्होंने बीजेपी के जिला दफ्तर में जाकर सदस्यता फार्म भरा।अब पार्टी कार्यकर्ता उन्हें चुनाव लड़ाएंगे!
                   सबसे मजेदार मामला तो  चाचौड़ा विधानसभा क्षेत्र का है।बीजेपी ने वहां अखिल भारतीय सेवा के एक अधिकारी की पत्नी को प्रत्याशी बनाया है।राजस्थान से व्याह कर इस इलाके की बहू बनी उक्त मोहतरमा ने कुछ समय पहले जिला पंचायत सदस्य का चुनाव भी लड़ा था। तब उन्हें बीजेपी की ही पूर्व विधायक ने हराया था।लेकिन एमएलए की टिकट की दौड़ में उन्होंने बीजेपी की अपनी तेजतर्रार महिला नेत्री को पछाड़ दिया है।अब पुरानी विधायक कह रही हैं कि पैराशूट प्रत्याशी मंजूर नहीं है। बीजेपी छोड़ कर आप में  चले गए एक नेता को भी टिकट दिया गया है।उन्हें दस साल से हारी हुई सीट लांजी पर उतारा गया है। एक स्कूल टीचर को भी मैदान में उतारा गया है।यह अलग बात है कि उनके पिता बीजेपी के सांसद रहे थे। कहा यह गया है कि ये सभी वे सीटें हैं जिन पर बीजेपी लगातार हारती रही है।पहले प्रत्याशी उतारकर वह भीतरघात की संभावना को खत्म करना चाहती है।चूंकि ये सभी सीटें हारी हुई हैं इसलिए उसने अपने खुद के नियम शिथिल किए हैं।बड़े अंतर से पिछला चुनाव हारे 28 नेताओं को फिर मैदान में उतारा है।कुछ नेताओं के परिजनों को भी टिकट दिया है।दागी भी सूची में हैं।75 साल का फार्मूला भी तोड़ा गया है।साफ है कि किसी भी कीमत पर जीत चाहिए!
                        पर मूल सवाल यह है कि क्या बीजेपी के पास 230 अपने ऐसे लोग नही हैं जिन पर वह भरोसा कर सके।सिर्फ 15 महीनों को छोड़ दें तो दिसंबर 2003 से एमपी में बीजेपी की सरकार है।इसमें करीब 17 साल से शिवराज सिंह मुख्यमंत्री हैं।एमपी वह राज्य है जिससे अटल बिहारी बाजपेई का नाम जुड़ा है।कुशाभाऊ ठाकरे और विजयाराजे सिंधिया जैसे पार्टी के संस्थापक सदस्य भी यहीं के थे।संघ दशकों से यहां काम कर रहा हैं।खासतौर पर वनवासी क्षेत्रों में उसकी जड़ें बहुत गहरी हैं।फिर भी उसे अपने कार्यकर्ता की जगह सरकारी कर्मचारियों को प्रत्याशी बनाना पड़ रहा है।
 ऐसा भी नही है कि उत्तरप्रदेश, कर्नाटक,महाराष्ट्र और बिहार की तरह यहां कई कोणीय मुकाबले की संभावना हो।यहां तमाम कोशिशों के बाद भी कोई तीसरा दल अपनी साख नही जमा पाया है।लड़ाई कांग्रेस और बीजेपी के बीच ही रही है।फिर भी प्रत्याशी आयात करना अपने आप में बड़ा सवाल है। पार्टी का यह फैसला उसके अपने संगठन और सरकार दोनो पर ही सवाल उठाता है।सवाल उसके अपने कार्यकर्ता भी उठा रहे हैं!लेकिन उनकी सुनेगा कौन?क्योंकि फैसले तो दिल्ली कर रही है!ठीक कांग्रेस की तर्ज पर!
                    पार्टी कह रही है कि वह विरोध और भीतरघात को "दबा" देगी।लेकिन एक सच यह भी है कि अक्सर दबाने से समस्या खत्म नहीं होती बल्कि बढ़ती है। जिसे छोटी फुंसी समझ कर अनदेखा किया जाता है वह कैंसर का रूप ले लेती है। अब कुछ भी हो अपना एमपी है तो गज्जब!यहां कांग्रेस को गाली देते देते बीजेपी खुद "कांग्रेस" बन गई है!आपको क्या लगता है!

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