संसद में बिखरे राजनीतिक दल-बादल देखकर राजनीतिक मौसम का पूर्वानुमान
ध्रुव शुक्ल,वरिष्ठ पत्रकार
संसद में देश की रीति-नीति और उसके दुखों पर बातचीत कम होते-होते इतनी घट गयी है कि राजनीतिक दलों की उसमें कोई दिलचस्पी ही नहीं रही। मन ही मन लगता है कि हमने अपने प्रतिनिधियों को संसद में शोर मचाने और वाकआउट करने भेजा है। पिछले पचहत्तर वर्षों में प्रायः सभी बड़े-छोटे दल भांति-भांति के गठबंधन बनाकर केन्द्र और राज्यों में शासन कर चुके हैं। अब जो सत्ता के भीतर और बाहर हैं, उनके पास एक-दूसरे के पापों का घड़ा फोड़ने का ही काम रह गया है। वे खुद ही एक-दूसरे को बेईमान सिद्ध करने पर तुले हुए हैं। संसद में बहस का बस यही मतलब रह गया है।
पहली बात तो यह कि हमें पार्लियामेण्ट्री राजनीति से किसी पवित्रता की उम्मीद नहीं करना चाहिए। अब तक वह राज्य पाने की अनैतिक होड़ का ही सबूत देती आयी है। भारत में आजादी के बाद और खासकर आपातकाल के बाद लोकतंत्र के नाम पर जो आंदोलन हुए और उनसे जो तात्कालिक राज्य व्यवस्था बनी, वह कुछ नेताओं की मनमानी का ही शिकार होती रही। जो राजनीतिक प्रतिपक्ष बना वह भी समझौतापरस्त, अचूक अवसरवादी और निकम्मा साबित हुआ। आज भी उसकी यही हालत है और पहले से भी ज़्यादा खराब है। कुल मिलाकर लोकतंत्र में अब तक जनता की जीत नहीं हो पा रही है। भांति-भांति के राजनीतिक दल और उनके नेता जनता से शक्ति छीनकर मनमानी कर रहे हैं।
अभी जो भारत की राजनीति में घट रहा है, वह तो लोकतंत्र के मिट जाने के संदेह से भर रहा है। जो राजनीतिक दल पिछले पचास वर्षों में कई तरह के गठबंधन बनाकर राज्य व्यवस्था में खुदरा भागीदार होते रहे हैं उनके कारनामों की पोल खुल रही है। इन दलों के नेताओं की यह शिकायत है कि उन्हें नीचा दिखाने की कोशिशें की जा रही हैं। पर एक-दूसरे को नीचा दिखाने का काम तो अब तक सभी दल करते आये हैं। यही करके तो वे चुनाव जीतने में सफल होते हैं। उनने आपस में शायद ही कभी एक नीतिवान प्रतिद्वंद्वी होने का उदाहरण पेश किया हो। वे सिर्फ राज्य की चाह में एक-दूसरे की अनीति पर पर्दा डालते हैं। जब उनका आपस में स्वार्थ नहीं सधता तो वे एक-दूसरे को बेपर्दा करने लगते हैं।
हम भारत के लोगों की मुश्किल यह है कि हमें इन्हीं अनीतिवान राजनीतिक लोगों के बीच से किसी को चुनकर अपना काम चलाना पड़ता है। अब तो सबके सब ऐसे चुनावी घोषणापत्र बनाने लगे हैं जो हमको ही लोभ-लालच से भरकर लोकतंत्र को मिटाने में भागीदार बना रहे हैं। कोई भी लोकतंत्र मुफ्तखोरी से ज्यादा दिन जीवित नहीं रह सकता। किसी राजनीतिक दल की यह ईमानदार कोशिश अब दिखायी नहीं देती कि वह ऐसी अर्थनीति पेश करे जो प्रत्येक अभावग्रस्त जन को हुनरमंद बनाये रखकर उसे अपने पाॅंवों पर खड़ा रख सके।
जनता के जो हाथ नेताओं की झूठी जय-जयकार में उठते रहते हैं उन्हें देश निर्माण में लगा हुआ दिखना चाहिए। सोलह करोड़ परिवारों को मुफ़्त अनाज दिया जा रहा है पर क्या लोकहित में उनसे कोई काम भी लिया जा रहा है ? किसानों के खाते में अल्प निधियां तो डाली जा रही हैं पर छोटी जोतों के किसानों की समृद्धि के प्रति लापरवाही क्यों बरती जा रही है? महिलाओं के खातों में भी मुफ्त धनराशि डालने की घोषणाएं हो रही हैं। क्या जन-धन खाते इस मुफ्तखोरी के लिए खोले गये हैं? होना तो यह चाहिए कि देश के अभावग्रस्त लोगों को काम मिले, उनकी कमायी बढ़े और वे अपने खातों में अपनी मेहनत से कमायी हुई पूंजी जमा कर सकें। उनकी पराधीनता में कमी आये। यह जिम्मेदारी केवल सरकार की नहीं, पूरी संसद की है।
सरकारें नये बाज़ार के हित में अपने देश के हुनरमंद लोगों से वे साधन छीनती जा रही हैं जिनके सहारे ये कारीगर लोग अपने गाॅंव में अपनी आजीविका चलाया करते थे। वनवासियों का भी यही हाल है। अब असहाय लोगों को गुज़ारा करने के लिए शहरों के कचरे से झुग्गियां बनाकर गंदे नालों के किनारे जीवन काटना पड़ रहा है। राज्यों की विफलता का एक प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि उनके द्वारा बड़े पैमाने पर मंदिरों का जीर्णोद्धार किया जा रहा है जिससे कि लोग भगवान के सामने अपने भाग्य को कोसते रहें और पत्थर की प्रतिमाओं के सामने रोते रहें। अपने चुने हुए नेताओं से कोई उम्मीद करना ही भूल जायें। जात-पांत में बंटे रहकर वोट देने के काम आते रहें।
मंदिर-मस्जिद के चक्कर काटते और पाखण्डी साधुवेशधारियों के पण्डाल सजाते नेता अपनी जीत की कामना कैसे करते होंगे? क्या वे यह प्रार्थना करते होंगे कि हे भगवान, हे ख़ुदा! मेरे देश के लोगों को इस योग्य न होने दे कि वे मेरे राजनीतिक छल को पहचान सकें। उन्हें तो अभागा और धर्मभीरू बनाये रखकर मेरा राजनीतिक भाग जगा दे? यह वरदान भगवान नहीं, हम ही हर चुनाव में उन्हें देते रहते हैं। वे हमसे वोट लेकर हमें अपने हाल पर छोड़ देते हैं और अपनी राजनीतिक सौदेबाजियों के लिए स्वतंत्र हो जाते हैं।
यह हाल और कब तक बना रहेगा? इससे मुक्ति का एक ही उपाय सूझता है कि हम अपने ही बीच से उन नेताओं की खोज करें जो भटके हुए लोकतंत्र को उसके सुलझे हुए रास्तों पर फिर ले आना चाहते हैं । हम उन नेताओं को पहचाने और परखें। यह प्रस्ताव कई वर्षों पहले जनता के सामने रखा जा चुका है पर जनता ने अब तक उस पर सामूहिक विचार तक नहीं किया। समझौतापरस्त दलीय राजनीति जनता की शक्ति को जनता के द्वारा आजमाने में अब तक रोड़े ही अटकाती आ रही है। ईमानदारी एक अलिखित मर्यादा है और उसे अपनाना पड़ता। वह किसी किताब में लिखी होने से जीवन में नहीं आती।
अगले तीन दिनों के संसदीय मौसम का पूर्वानुमान
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आज लोकसभा में सरकार के विरुद्ध आने वाले अविश्वास प्रस्ताव के कारण अगले तीन दिनों के राजनीतिक मौसम का पूर्वानुमान यह है कि सब दल एक-दूसरे पर उनके राजनीतिक पापों के घड़े फोड़ेंगे और हमेशा की तरह सदन में भयानक शोर की बाढ़ आने की प्रबल संभावना है। नेता अपने-अपने पाप छिपाने के लिए दलीय कुतर्कों की नावों में बैठकर चुनावी वैतरणी पार करने की पतवारें खोज रहे होंगे और सदन के बाहर विशाल देश के अभावग्रस्त लोग बिना किसी छतरी के जैसे-तैसे अपनी डूबती गृहस्थी बचा रहे होंगे।