राज - काज, ‘दिग्विजय-नरेंद्र’ एक जैसे, अलग - अलग भी....
'दिनेश निगम ‘त्यागी’,वरिष्ठ पत्रकार
चुनाव के दौरान कांग्रेस में जो काम दिग्विजय सिंह करते हैं, भाजपा में नरेंद्र सिंह तोमर उसी के माहिर खिलाड़ी हैं। दोनों नेताओं के विवाद सुलझाते, समझौता कराते हैं और चुनाव में सभी को एकजुट कर मोर्चे पर लगाते हैं। दोनों में बस एक फर्क है। भाजपा में तोमर का कोई विरोधी नहीं है। वे ऐसी कोई बात नहीं बोलते जो विवाद की वजह बने। वे गंभीर होकर नापतौल कर बोलने के आदी हैं। इसके विपरीत दिग्विजय के विरोधियों की कमी नहीं है और उनके बयान विवाद में भी रहते हैं। भाजपा चुनाव प्रबंधन समिति का अध्यक्ष बनने के बाद तोमर ने काम शुरू कर दिया है। प्रदेश के मंत्री गोविंद सिंह राजपूत के घर जाकर मिलना, उनकी कार्यशैली का हिस्सा है। वे गोविंद और भूपेंद्र सिंह ठाकुर के बीच का विवाद निबटा रहे हैं। इसके साथ उन्होंने प्रदेश का दौरा शुरू कर दिया है। इस दौरान भी वे स्थानीय भाजपा नेताओं के बीच मतभेद सुलझा कर उन्हें पार्टी हित में एकजुट करने का काम कर रहे हैं। तोमर दो बार प्रदेश अध्यक्ष रहकर विधानसभा चुनावों में अपने मैनेजमेंट का लोहा मनवा चुके हैं। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के साथ उनकी कैमिस्ट्री अच्छी है। पिछली बार विधानसभा चुनाव में उनके पास कोई खास दायित्व नहीं था और भाजपा पिछड़ गई थी। संभवत: इसीलिए पार्टी को फिर तोमर की याद आई।
चुनावी रंग में रंगे ‘कैलाश’, पिछड़ गए ‘प्रहलाद’....
भाजपा नेतृत्व ने विधानसभा के चुनावी मोर्चे में नरेंद्र सिंह तोमर की तरह कैलाश विजयर्गीय को भी तैनात कर दिया है। चुनाव से पहले भाजपा के तीन नेता ही चर्चा में थे। तीसरा नाम प्रहलाद पटेल का था। ये सभी रणनीतिक बैठकों में हिस्सा ले रहे थे। अटकलें थीं कि प्रहलाद को वीडी शर्मा की जगह प्रदेश अध्यक्ष बनाया जाने वाला है लेकिन हर बार की तरह वे फिर पिछड़ गए। तोमर के बाद विजयवर्गीय को चुनाव में लगा दिया गया है। वे चुनावी रंग में रंग गए हैं। इंदौर में अमित शाह का सफल कार्यक्रम कराने के बाद उन्होंने प्रदेश का दौरा प्रारंभ कर दिया है। प्रहलाद का भी प्रदेश में अच्छा आधार है, लेकिन उन्हें कोई बड़ी जवाबदारी नहीं दी गई। तोमर अच्छे संगठक और प्रबंधक हैं तो विजयवर्गीय भीड़ को बांधने और कार्यकर्ताओं में जोश भरने में माहिर। पिछले कुछ समय से विजयवर्गीय अलग-थलग दिखाई पड़ रहे थे, लेकिन उनके कौशल को देखकर ही भाजपा नेतृत्व ने उन्हें चौथी बार पार्टी का महामंत्री ही नहीं बनाया, चुनाव में उनका उपयोग भी लिया जा रहा है। कैलाश ने यह कह कर सनसनी फैला दी थी, कि जब उन्होंने जेपी नड्डा से कहा कि मुझे आपने चौथी बार महामंत्री बना दिया। नड्डा का जवाब था, मैं आपको कुछ और बनाना चाहता था लेकिन फिर महामंत्री बनाना पड़ा। इस कथन के मायने निकाले जा रहे हैं।
चर्चा में ‘गोपाल’ को चुनाव अभियान से दूर रखना....!
राजनीति में भाजपा के दिग्गज नेता गोपाल भार्गव किसी परिचय के मोहताज नहीं है। वे विधानसभा के लगातार 8 चुनाव जीत चुके हैं। 9 वां चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं। कांग्रेस के डॉ गोविंद सिंह की तरह वे भी अपराजेय नेता हैं। 2018 में भाजपा के सत्ता से बेदखल होने पर वे नेता प्रतिपक्ष बनाए गए थे, लेकिन अचरज यह कि कभी न हारने वाला यह नेता भाजपा के चुनाव अभियान से अलग-थलग है। अपेक्षाकृत नए और हार चुके नेता तक भाजपा की चुनाव प्रबंधन समिति, घोषणा पत्र सहित अन्य समितियों में हैं, लेकिन गोपाल भार्गव कहीं भी नहीं। सागर जिले से दो मंत्रियों भूपेंद्र सिंह एवं गोविंद सिंह राजपूत के अलावा विधायक प्रदीप लारिया को चुनाव समिति में जगह दी गई है लेकिन गोपाल की कोई पूछपरख नहीं। सवाल है, क्या भाजपा उनके जीतने के कौशल का उपयोग नहीं करना चाहती? उनसे जीतने के टिप्स नहीं लिए जा सकते? ऐसा न होने का मतलब क्या यह है कि भाजपा के अंदर कोई ताकतवर लॉबी उन्हें आगे बढ़ने से रोकने के लिए सक्रिय है? वजह जो भी हो लेकिन भाजपा नेतृत्व द्वारा भार्गव का चुनाव अभियान से दूर रखना चर्चा का विषय है। नेता प्रतिपक्ष और वरिष्ठ होने के नाते ही उन्हें प्रदेश चुनाव समिति में रखा जा सकता था, लेकिन ऐसा भी नहीं हुआ। राजनीतिक हलकों में इसके मायने निकाले जा रहे हैं।
इसलिए कमलनाथ को खतरा मानती है भाजपा....
कमलनाथ के रहते भाजपा मंदिर- मस्जिद और हिंदू-मुसलमान की राजनीति नहीं कर सकती। इसीलिए भाजपा के नेता जितना दिग्विजय सिंह को अपने लिए अनुकूल मानते हैं, उससे कहीं ज्यादा कमलनाथ की राजनीति से डरते और खतरा महसूस करते हैं। कमलनाथ भाजपा से ज्यादा भगवा रंग में रंगे नजर आने लगे हैं। चर्चा थी कि बागेश्वर धाम के आचार्य धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री भाजपा के प्रचारक बन गए हैं। कमलनाथ ने उन्हें भी मैनेज कर लिया। वे छिंदवाड़ा में जाकर कथा कर रहे हैं। कथा से पहले कलश यात्रा में उमड़ी भीड़ का दृश्य देखने लायक था। कमलनाथ ने खुद बेटे नकुल के साथ धीरेंद्र शास्त्री की आरती उतारी। खबर है कि जल्दी ही वे कुबरेश्वर धाम के पंडित प्रदीप मिश्रा को बुलाकर शिव पुराण कथा कराने वाले हैं। इससे पहले कमलनाथ अपने 15 माह के मुख्यमंत्रित्व काल में गौशालाओं का निर्माण करा चुके हैं। महाकाल लोक और ओंकारेश्वर के विकास की शुरूआत उन्होंने की थी। राम वन गमन पथ की दिशा में भी उन्होंने काम शुरू किया था। हनुमान भक्त के तौर पर वे फेमस हैं ही, सत्ता से हटने के बाद भोपाल सहित पूरे प्रदेश के कांग्रेस कार्यालयों में उन्होंने हुनमान चालीसा का पाठ करा दिया था। भाजपा की चिंता यही है कि वह नाथ के रहते अपनी असल राजनीति नहीं कर पा रही।
‘गोविंद’ की नैया पार लगा पाएंगे ‘गोपाल’....!
पुरानी मान्यता है कि विप्र अर्थात ब्राह्मण किसी भी समस्या का निदान बताने की योग्यता रखते हैं। लगता है इस मान्यता के कारण ही प्रदेश के परिवहन एवं राजस्व मंत्री गोविंद राजपूत ‘विप्रं शरणं गच्छामि’ के लिए मजबूर हुए। इसके लिए उन्होंने ब्राह्मण समाज का बड़ा कार्यक्रम किया। इसमें बुंदेलखंड अंचल के ब्राह्मण नेता प्रदेश के पीडब्ल्यूडी मंत्री गोपाल भार्गव के साथ गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा को भी बुलाया। कार्यक्रम में गोविंद ने पुरानी परंपरा के अनुसार विप्रों का सम्मान और पूजन किया। थाल में जल भर कर उनके पैर पखारे और शरणागत होकर आशीर्वाद लिया। दरअसल, कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आने के बाद गोविंद ने उप चुनाव लड़ा तो उनके साथ गोपाल भार्गव के साथ सागर के दूसरे बड़े नेता भूपेंद्र सिंह भी थे। दोनों की मदद से उन्होंने सुरखी में बड़ी जीत दर्ज की थी। इस समय भूपेंद्र के साथ उनका छत्तीस का आंकड़ा चल रहा है। इससे उन्हें नुकसान का खतरा है। संभवत: इसीलिए चुनावी नैया पार लगाने के उद्देश्य से गोविंद विप्रों और गोपाल भार्गव की शरण में आए। गोविंद और गोपाल ने एक दूसरे की जमकर तारीफ भी की। विप्रों ने गोविंद को दिल खोलकर आशीर्वाद दिया। सुरखी क्षेत्र के साथ समूचे सागर में एक ही सवाल तैर रहा है कि क्या गोपाल और विप्र गोविंद की चुनावी नैया पार लगा पाएंगे?
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