तलाश माकूल रिश्तों की/ हमसफर फरिश्तों की.....
सुभाष अरोड़ा,वरिष्ठ पत्रकार
रिश्ते,आज के रिसते प्रश्नचिन्ह/ परिभाषित परिभाषा से दूरी तय कर आए हैं/ संबोधन: सड़े पडे़ वहीं खड़े हैं/ देखिए, चल पाते हैं इस कदर,कहां तक/ कितने कदम ?
लौटना कठिन नहीं/ मीलों संग चलने के बाद/ कटघरे में अपरिचित( तलाक) हो सकते हैं/ एक ही छत तले/ हंस सकते हैं, रो सकते हैं....
आत्महत्या के लिए उकसाने के एक मामले में सुनवाई करते हुए प्रयागराज हाई- कोर्ट के जस्टिस सिद्धार्थ वर्मा ने कहा कि विपरीत लिंग के साथ मुक्त संबंध के लालच में देश का युवा अपना जीवन बर्बाद कर रहा है । उन्होंने आगे कहा कि सोशल मीडिया, फिल्म, टीवी धारावाहिक और वेब सीरीज से युवा पीढ़ी में भटकाव उत्पन्न हो रहा है जिससे साथी चयन में गलत फैसलों के घातक परिणाम आ रहे हैं । नामाकूल रिश्तों के प्रति उनकी यह चिंता सचमुच सामाजिक विकृति (सोशल पैथोलॉजी) का रूप लेने लगी है। हाल ही की कुछ खबरों का जिक्र करते हुए याद दिलाना चाहूंगा कि एक बीरबानी पाकिस्तानी/ सीमा लांघ बनी कहानी/दूजी दीवानी सरहद पार/ नसरुल्ला से हो गया प्यार।
भूमंडलीकरण के इस दौर में भारी आर्थिक और सामाजिक बदलाव आ रहे हैं जिन्हें हम अनदेखा नहीं कर सकते। लैंगिकता और यौनिकता वैविध्य के फल- स्वरुप समाज में हलचल सी मच गई है। थर्ड जेंडर भी यथोचित सामाजिक अधिकार,मान्यता और सम्मान के लिए न्यायालय में खड़ा है।
महान मनोचिकित्सक सिग्मंड फ्रॉयड ने कहा था " चेतन व्यवहार की नियंत्रक डोरियां अचेतन द्वारा खींची जाती हैं "। लिबिडो थ्योरी और सेक्सुअल थ्राल्डम पर उनकी दृष्टि ने मनोचिकित्सा विज्ञान और समाजशास्त्रीय अध्ययन के नए द्वार खोल दिए थे। ईडिपस कॉम्प्लेक्स और नार्सिसिस्म (आत्मरति) इड, ईगो और सुपर- ईगो जैसे रहस्योउद्घाटन के बाद रिश्ते बनाने के लिए अंतर्मन की गहराइयों को टटोलने का वक्त भी आ चुका है । " दिव्य उपासना,नग्न साधना/ अजब-गजब है, विजय वासना/ नर-मादा की उलझी फितरत/ राज खोलती नए-नए/ बलवती मानवीय जिजीविषा/ रचती रोज नया किस्सा ".... ।
हमारे बीच, आसपास और स्वयं हम कहीं-कहीं, कभी-कभी रिश्तो को जीने में घुटन भरी असमर्थता महसूस करते हैं । मानव समाज नाना प्रकार के रिश्तों से व्यवस्थित और महफूज रहता है। अतः पारस्परिक संबंधों को भरपूर जीवित रखना सामाजिक जीवन की महत्वपूर्ण अनिवार्यता है। यूं तो हर रिश्ता अपना खास महत्व रखता है पर पति- पत्नी का रिश्ता इन सभी रिश्तों की नींव है। प्राचीन काल से ही किशोर व किशोरी दांपत्य सूत्र बंधन द्वारा संतानोत्पत्ति से वंश वृद्धि करते आ रहे हैं। विवाह एक प्रजनन मूलक परिवार स्थापना इकाई है जिसे विश्वव्यापी सामाजिक स्वीकृति भी प्राप्त है।
जिन परिवारों में पति- पत्नी संबंध सुखद नहीं होते उनके सदस्य अमूमन मानसिक उत्पीड़न,असहायपन, सामाजिक टूटन और बिखराव का शिकार होते हैं जिसके कारण मानसिक बाधाएं उत्पन्न होने का खतरा और व्यक्तित्व विकास में अवरोध आ सकता है जो समाज के लिए क्षतिकारक है। तार्किक दृष्टि से विचार करें तो इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि संबंधों के निर्वाह में सभी सदस्यों की भूमिका खासकर पति-पत्नी और अन्य सहजीवी सदस्यों का समभाव और सद्भाव पूर्ण व्यवहार से प्रतिकूल अवस्था का भी मजबूती से सामना किया जा सकता है।
हमारे भारतीय समाज में वैदिक काल से गुप्त काल के बीच का समय विभिन्न उतार-चढ़ाव से युक्त रहा है। विदेशी आक्रांताओं ने व तत्कालिक धार्मिक परिस्थितियों ने इस वैविध्य में अपना योगदान दिया है। विवाह संस्था का उद्भव व संपूर्ण विकास गुप्त काल तक अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच चुका था। राजबली पांडे कृत"हिंदू संस्कार" में विवाह को सबसे महत्वपूर्ण संस्कार के रूप में स्वीकार किया गया है। डॉक्टर सत्यकेतु विद्यालंकार द्वारा "प्राचीन भारतीय संस्कृति और इतिहास"में विवाह प्रथा का विस्तार से वर्णन मिलता है। डॉ वासुदेव शरण अग्रवाल ने "हिंदू परिवार मीमांसा" में वैवाहिक पद्धतियों पर विस्तार से प्रकाश डाला है।
मौजूदा परिवेश से बाबस्ता हम सब प्राय; प्रेम विवाह की असफलता को उछालते रहते हैं परंतु क्या परंपरागत व्यवस्थित विवाहों में बड़ी संख्या बेमेल विवाहों की नहीं है ? जिन्हे हम हितकर तो नहीं ठहरा सकते। पहली अवस्था में तलाक संख्या अधिक तो दूसरी अवस्था में संबंधों का अनिच्छापूर्वक निर्वाह दुखी जीवन में साथ साथ रहने का दिखावा भर रह जाता है। दरअसल दोषयुक्त वर-वधु चयन प्रणाली के कारण ही बहुत से विवाह सफल नहीं हो पाते। हमारी वर-वधु चयन प्रणाली के बहुत से मानक अब उतने कारगर और परिमाणमूलक नहीं रहे । रूढ़िवादी सोच, जातिगत सीमा, अनुचित अपेक्षाएं, प्रजातीय पूर्वाग्रह, आर्थिक सामाजिक श्रेष्ठता की भावना, स्वार्थपरिता और वैज्ञानिक दृष्टि का अभाव सही चुनाव में बाधक बनते हैं। दहेज प्रथा भी काफी हद तक दोषपूर्ण मापक का कार्य करती है। फल स्वरुप हमारे चयन दायरे छोटे-छोटे सामाजिक समूह मात्र होकर रह जाते हैं तथा अज्ञात का भय तो तलवार की तरह फिर भी लटका रहता है।
दहेज प्रथा विरोध और अंतरजातीय विवाह हमें जातिगत और आर्थिक सीमाओं से उबारते जरूर हैं परंतु यह समस्या का समाधान नहीं हैं। आर्थिक सीमाएं,जातिगत सीमाएं लांघने के बाद प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक माध्यम के उपयोग से जब हमारा चयन दायरा विस्तृत तो हो जाता है पर तब हमें अपनी प्राथमिकताओं के साथ-साथ निर्णायक मानकों की भी आवश्यकता पड़ती है। ऐसे में संबंधों की दुरूह क्रिया-प्रक्रिया में स्वस्थ्य और सही चयन प्रणाली द्वारा ही सफलता की संभावनाओं को प्रबल बनाया जा सकता है। ऐसी माकूल वर-वधु चयन प्रणाली के मोटे तौर पर तीन आधार सूत्र हैं। प्रथम- भौतिक स्तर, द्वितीय- बौद्धिक स्तर, तृतीय- मानसिक अथवा आध्यात्मिक स्तर। जैसा नामों से स्पष्ट है तीनों सूत्र क्रमशः शारीरिक विकास, बौद्धिक विकास और मानसिक तथा आध्यात्मिक विकास के सूचक हैं। आयुर्वेद में जैसे वात, पित्त और कफ का असंतुलन व्याधि कारक होता है इसी प्रकार इन तीन सूत्रों का गलत मिलान भी वैवाहिक जीवन में कष्टदायक सिद्ध होता है। अतः इन तीनों सूत्रों के सही परिमापन और मिलान से बेहतर संभावनाएं हासिल की जा सकती है। इन तीनों सूत्रों के स्तर मिलान परिमापन में हमें तुलनात्मक दृष्टिकोण अपनाना होगा। ऐसे में वर- वधु का आपसी स्तरांतरण उन्नीस-बीस होने पर स्वीकार्य होगा परंतु पांच-पच्चीस होने पर स्वीकार्य नहीं । ऐसे युवक और युवती जिनके तीनों सूत्र स्तर आपस में मेल खाते हों अगर दांपत्य बंधन को अंगीकार करें तो उनमें उच्च कोटि का पारस्परिक समझाव उत्पन्न होगा। ऐसे दंपत्ति का जीवन अधिक सुचारू और सुखद होगा तथा विवाह सामाजिक रचनात्मक योगदान का कारक भी। ऐसे में पति-पत्नी के जीवंत रिश्ते समाज और राष्ट्र को समृद्ध करेंगे।
सारांशत: सुखी दांपत्य जीवन के लिए वर-वधु का भौतिक,बौद्धिक और मानसिक स्तर अगर आपस में मेल खाता है तो फिर चाहे वह पृथक प्रांत, देश,समुदाय, वर्ण, वर्ग के क्यूं न हो, सफल दंपत्ति प्रमाणित हो सकते हैं।उनका जीवन परिवार,समाज और राष्ट्र को खुशहाल बना सकता है। युवक और युवतियों को चाहिए कि वह वैज्ञानिक सोच के साथ जीवनसाथी का सही चुनाव करें और कुंठा तथा संत्रास मुक्त जीवन की राह अपनायें।
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