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बायजा बाई सिंधिया 1857 की क्रांति के प्रथम सूत्रधारों में शामिल थीं


लाजपत आहूजा ,वरिष्ठ पत्रकार

महादजी सिंधिया ,दिल्ली सल्तनत के सर्वेसर्वा थे और मुग़ल बादशाह शाह आलम दिृतीय उनसे १३ लाख रू सालाना पेंशन पाता था . महादजी सिंधिया की गिनती तत्समय  के एशिया के श्रेष्ठ सेनापति  के रूप में होती है . इतिहासकार सहमत हैं कि अगर वे कुछ ओर वर्ष जीवित रहते तो देश का इतिहास और भूगोल बदल जाता . ग्वालियर की राजमहिषि बायजा बाई शिंदे (सिंधिया) इन्हीं महादजी की बहू थीं .  इसके कई प्रमाण मिले हैं कि बायजा बाई सिंधिया १८५७ के प्रथम सूत्रधारों में से थी . उन्होंने  और नाना ने क्रांति की प्रारंभिक तैयारियों के लिये धन उपलब्ध कराया .   अंग्रेजों से उनकी पटती नहीं थी .  उन्होंने मथुरा में सर्वतामुखी यज्ञ का आयोजन कर लोगों और ब्राम्हणों को इक्ठठा किया . उस समय इस पर ७ लाख रू खर्च किये गए . देसी इतिहासकारों उनके इस योगदान को रेखांकित नहीं किया . हाँ यह अवश्य है कि यह कार्य उन्होंने परदे के पीछे रह कर किया . संभवतः इसका कारण वे ग्वालियर और जयाजी राव सिंधिया को बचाकर रखना रहा होगा . क्रांति के समय वे ग्वालियर या उसके आस-पास थीं .

पेशवा के सेनापति तात्याटोपे के वंशजों ने मिलकर कई साल तक शोध किया  . बुंदेलखंडी और उर्दू के पत्रव्यवहार के पढ़कर पराग टोपे ने एक किताब लिखी “ तात्या टोपे का आपरेशन रेड लोटस”  . यह शोध मुख्य रूप से तात्या टोपे के बारे में है पर  इसमें बायजाबाई सिंधिया और अन्यों की भूमिकाओं पर प्रकाश डाला गया है .
पराग टोपे ने इतिहासकार अमर फ़ारूक़ी के बायजा बाई शिंदे पर लिखे लेख का हवाला देते हुये कहा कि  वे उस अंधकारपूर्ण युग में चमचमाती शख़्सियत थीं .  बायजा बाई सिंधिया ने तात्या टोपे और नाना साहेब पेशवा  जैसी हस्तियों को प्रेरणा दी . महादजी  की मृत्यु के बाद उनके उतराधिकारी बने दौलत राव सिंधिया से  उनका विवाह हुआ . बायजा बाई दूसरे अंग्रेज मराठा युध्द की कम उम्र  की साक्षी बनीं  . वे एक चतुर और सक्षम प्रशासक थी .  दोलत राव सिंधिया के साथ सलाहकार के रूप में हमेशा रहती थीं . कई इतिहासकारों ने बायजाबाई सिंधिया की भूरि भूरि प्रशंसा की  है . दौलत राव सिंधिया की मृत्यु के बाद बायजा बाई राज्य की की रीजेन्ट बनी  .अंग्रेज़ी इतिहासकारों ने उन पर और उनके पिता पर  व्यक्तिगत हमले शुरू कर दिये जो अंग्रेजों की नीयत को साफ करते हैं .  अंग्रेज ग्वालियर के मामले में कम से कम दखल दे , यह बायजा बाई चाहती थी .इस बीच उनके पिता की हत्या कर दी गई . यह घाव वे भूल नहीं सकी . अंग्रेजों के साथ उनके संबंध ख़राब होते गए . इस दौरान अंग्रेजों ने १ करोड़ का क़र्ज़ ग्वालियर से माँगा . बायजा बाई ने शर्तें लगा दी .अंग्रेज इससे और चिढ़ गए . उनका बैंकिंग का अपना नेटवर्क था . अंग्रेजों ने अब गोद लिये पुत्र जनकोजी सिंधिया का सहारा लिया . जनको जी अंग्रेजों की ओर झुकने लगे .  इन हालातों में उन्हें  जुलाई१८ ८३ में  ग्वालियर छोड़ना पड़ा .अंग्रेज़ों ने ऐसे इंतज़ाम किये कि वे वापस ग्वालियर न लौट पाएँ .  इस दौरान वे धौलपुर, आगरा, मथुरा और फ़तहगढ़ में डेरा डाला .  बायजाबाई अब ग्वालियर के गोद लिये पुत्र से ध्यान हटाकर अंग्रेजों को हटाने के बड़े काम में लग गई . कृष्ण शास्त्री को अपना दूत बनाकर उन्होंने  समान विचारों वाले लोगों से संपर्क साधना शुरू किया . सन १८८३ के आसपास होल्कर से संपर्क साधा गया  . पेशवा बाजीराव दिृतीय  को भी संदेशा भेजा गया . नाना  उस समय कम  उम्र के कारण कोई निर्णय लेने में  सक्षम  नहीं थे .  बाजीराव की मृत्यु के बाद बात आगे बढ़ी . १857 की क्रांति  का खर्च भी इन दोनों ने उठाया . कमाल फ़ारूक़ी का यह कहना प्रासंगिक है कि लक्ष्मीबाई से बायजा बाई तक अंग्रेज़ी अन्याय का शिकार थीं .

(कल आगे  का इतिहास)

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