बीस साल बाद चौराहे पर भाजपा
अरुण दीक्षित,वरिष्ठ पत्रकार
मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव में मात्र 120 दिन ही बचे हैं। इस महाभारत के लिए सभी दल अपनी अपनी चतुरंगिनी सेनाएं तैयार कर चुके हैं।सत्तारूढ़ बीजेपी तो पिछले तीन साल से चुनावी मोड में ही है।लेकिन लगभग दो दशक सत्ता में रहने के बाद भी वह अंदर से अपनी जीत को लेकर आश्वस्त नही है।यही वजह है कि एक ओर जहां वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने मतदाताओं को लुभाने के लिए सरकारी खजाने का मुंह खोल रखा है वहीं दूसरी ओर बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व ने चुनाव की कमान पूरी तरह अपने हाथ में ले ली है।उसकी तैयारियों से ऐसा लग रहा है कि उसे न तो अपने राज्य संगठन पर भरोसा है और न ही राज्य सरकार पर!कर्नाटक चुनाव के बाद उसकी चिंता और बढ़ गई है।
हालांकि मध्यप्रदेश के जमीनी हालात कर्नाटक जैसे नही हैं।लेकिन राज्य की वर्तमान सरकार कर्नाटक की निवर्तमान सरकार की तरह बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व की तोड़फोड़ नीति का ही नतीजा है।इसलिए वह यहां कांग्रेस को कोई मौका नहीं देना चाहती है।यही वजह है कि खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके एकमात्र विश्वस्त केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह मध्यप्रदेश का नियंत्रण अपने हाथ में रखे हुए हैं।कर्नाटक और मध्यप्रदेश में सबसे बड़ा फर्क यह है कि यहां सत्ता के मूल खिलाड़ी बीजेपी और कांग्रेस ही हैं।जबकि कर्नाटक में कई दल मैदान में थे।
यहां आजादी के बाद से अब तक कमोवेश इन्हीं दोनों के हाथ में सत्ता रही है।अस्सी के दशक में कुछ समय के लिए जनता पार्टी सत्ता में आई थी।लेकिन उसमें भी बड़ा हिस्सा तब के जनसंघ का ही था।बाद में बीजेपी के गठन के बाद से वह मध्यप्रदेश में अकेले ही लड़ती रही है।
1992 में अयोध्या में बाबरी ढांचा गिराए जाने के बाद यहां की तत्कालीन सुंदरलाल पटवा सरकार को बर्खास्त कर दिया गया था।उसके बाद 1993 के अंत में हुए विधानसभा चुनाव में उम्मीद के विपरीत बीजेपी हार गई थी।उस हार की वजह से वह 10 साल तक सत्ता से दूर रही थी। मध्यप्रदेश संघ और बीजेपी की नर्सरी रहा है। अटलविहारी बाजपेई और कुशाभाऊ ठाकरे जैसे बड़े स्तंभ इसी राज्य के थे।इसके अलावा इस प्रदेश ने पार्टी के अन्य राज्यों से जुड़े नेताओं को पालने पोशने का काम भी लगातार किया है।आज भी कर रहा है।दक्षिण भारत के कई बीजेपी नेताओं को मध्यप्रदेश ही राज्यसभा के रास्ते संसद में पहुंचाता रहा है। प्रदेश के चुनावी खिलाड़ियों में सबसे पहले बीजेपी की बात करते हैं।दिग्विजय के नेतृत्व में कांग्रेस से दो बार हारने के बाद बीजेपी ने 2003 में उमा भारती को मध्यप्रदेश में अपना चेहरा बनाया था। तब उमा के नेतृत्व में बीजेपी ने प्रदेश में इतना सघन अभियान चलाया था कि कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ हो गया था। उस चुनाव में कांग्रेस को 230 में से कुल 38 सीटें मिली थीं। उसकी ऐसी दुर्गति पहले कभी नहीं हुई थी।
उमा भारती जब तक ठीक से राज्य के प्रशासन को समझ पाती तब तक पार्टी के भीतर ही उनके खिलाफ बड़ा षडयंत्र हो गया।कर्नाटक के हुबली शहर में एक पुराने मामले में जारी एक वारंट की आड़ में उमा से इस्तीफा ले लिया गया।वे 7 दिसंबर 2003 को राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री बनी थीं।करीब 8 महीने बाद ही 23 अगस्त 2004 को उनका इस्तीफा हो गया।उनके बाद वरिष्ठ नेता बाबूलाल गौर को राज्य का नया मुख्यमंत्री बनाया गया।गौर भी करीब सवा साल मुख्यमंत्री की कुर्सी पर रहे। बाद में तब केंद्र में अहम भूमिका निभा रहे प्रमोद महाजन ने उमा के भरपूर विरोध को नकारते हुए गौर की जगह शिवराज सिंह को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा दिया।
उसके बाद बीजेपी के भीतर बहुत कुछ हुआ।नाराज उमा पार्टी से बाहर हो गईं।उन्होंने अपनी अलग पार्टी बनाई।लेकिन अपनी तमाम कोशिशों के बाद भी वे अपनी पूर्व पार्टी का कोई खास नुकसान वे नहीं कर पाईं। इस दौरान उनके अस्थिर स्वभाव के कारण उनके अपनों ने उन्हें जो जख्म दिए वे शायद उन्हें आज तक याद होंगे। 2008 का विधानसभा चुनाव शिवराज सिंह के नेतृत्व में लड़ा गया।उस समय भी कांग्रेस के भीतर भारी उठक पटक चल रही थी।2003 की करारी हार के बाद दिग्विजय सिंह ने दस साल का राजनीतिक सन्यास लिया था।वे बीजेपी से ज्यादा अपनों के निशाने पर थे।शायद यही वजह रही होगी कि उन्होंने खुद के साथ साथ पार्टी को भी सन्यास मोड में रखने में अहम भूमिका निभाई!2008 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने करीब 78 सीटें जीती थीं।बाद में 2009 की शुरुआत में हुए लोकसभा चुनाव में भी उसके 12 सांसद चुने गए थे।लोकसभा में इतनी बड़ी जीत उसे 1984 के बाद पहली बार मिली थी।उसके बाद अभी तक उसके लोकसभा सांसदों की संख्या दो अंकों में नही पहुंची है।इस समय तो मध्यप्रदेश से उसका एकमात्र लोकसभा सदस्य है।
2013 का चुनाव भी शिवराज सिंह की अगुवाई में लड़ा गया।कांग्रेस में दिग्विजय का संन्यास जारी था । इसलिए मध्यप्रदेश में कांग्रेस का भी राजनीतिक सन्यास जारी रहा। शिवराज सरकार की तमाम कमियों और केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार होने के बाद भी कांग्रेस बड़े अंतर से विधानसभा चुनाव हारी।बाद में लोकसभा में भी उसे हार का सामना करना पड़ा।
2014 में जब नरेंद्र मोदी को संघ और बीजेपी ने अपना प्रधानमंत्री प्रत्याशी बनाया तब शिवराज सिंह भी उसी लाइन में खड़े थे। खुद लालकृष्ण आडवाणी ने प्रधानमंत्री पद के लिए उनका नाम लिया था।
लेकिन नरेंद्र मोदी के दिल्ली की सत्ता पर काबिज होने के बाद उनका ग्राफ लगातार गिरा!एक स्थिति यह आ गई कि शिवराज सिंह सार्वजनिक मंचों पर नरेंद्र मोदी को भारत के लिए भगवान की देन बताने लगे! यह क्रम आज भी जारी है।
इस बीच शिवराज सरकार पर तमाम घोटालों के आरोप लगे।डंपर घोटाले के बाद व्यापम घोटाला सामने आया।जिसकी वजह से पूरी दुनियां में मध्यप्रदेश की बदनामी हुई।व्यापम की जांच के लिए सीबीआई को भोपाल में अपना अलग दफ्तर तक खोलना पड़ा। जांच अभी तक चल रही है।व्यापम में शिवराज मंत्रिमंडल के सदस्य लक्ष्मीकांत शर्मा को जेल भी जाना पड़ा था।शर्मा अब दुनियां में नही हैं।उनकी मौत के साथ ही बहुत से राज दफन हो गए हैं। इसी बीच कांग्रेस ने भी अपनी रणनीति बदली।दिग्विजय सिंह का राजनीतिक सन्यास भी पूरा हो चुका था। केंद्रीय नेतृत्व ने कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया को आगे करके 2018 का विधानसभा चुनाव लडा।दिग्विजय ने प्रदेश में घूम कर इस जीत में अहम भूमिका निभाई।हालांकि दोनों में कांटे की टक्कर हुई लेकिन कांग्रेस के 114 विधायक चुने गए।बीजेपी 109 पर ही रुक गई।कमलनाथ ने चार निर्दलीय और सपा बसपा के तीन विधायकों के सहयोग से अपनी सरकार बनाई!इस तरह कांग्रेस का 15 साल का सत्ता का वनवास खत्म हुआ।
विधानसभा चुनाव के 5 महीने बाद हुए लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने फिर बाजी पलट दी।प्रदेश में कांग्रेस सरकार होते हुए भी उसने 29 में से 28 लोकसभा सीटें जीत ली।कांग्रेस के मुख्यमंत्री कमलनाथ अपनी छिंदवाड़ा लोकसभा सीट बहुत ही मुश्किल से बचा पाए।उनके पुत्र बहुत ही कम अंतर से चुनाव जीते।अब तक अजेय माने गए ज्योतिरादित्य सिंधिया भी गुना शिवपुरी लोकसभा से से भारी अंतर से चुनाव हार गए! लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस में कलह बढ़ गई।एक ओर तो अपने गढ़ में अपने ही पूर्व सहायक से हार की टीस और दूसरी ओर प्रदेश सरकार की कथित अनदेखी से ज्योतिरादित्य को बेहद परेशान किया।उधर कमलनाथ और दिग्विजय की जोड़ी ने उन्हें हाशिए पर पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।दिल्ली ने भी सिंधिया का साथ नही दिया।
नतीजा यह हुआ कि ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने डेढ़ दर्जन विधायकों के साथ बीजेपी में चले गए।कहा जाता है कि उनके इस फैसले में गुजरात स्थित उनकी ससुराल की अहम भूमिका रही।
सिंधिया के दलबद्ल से कमलनाथ की 15 महीने पुरानी सरकार गिर गई।कांग्रेस आज भी आरोप लगाती है कि कमलनाथ सरकार गिराने के लिए बीजेपी ने जो ऑपरेशन लोटस चलाया उस पर मोटी रकम खर्च की थी।सिंधिया के विधायकों के साथ कांग्रेस के कुछ और विधायक भी "समर्थन मूल्य" लेकर पाला बदल गए थे। सिंधिया के पाला बदल के बाद तमाम अटकलों को गलत साबित करके और पार्टी के भीतर अपने विरोधियों को धूल चटाते हुए शिवराज सिंह चौहान फिर से मुख्यमंत्री बन गए।कांग्रेस आज भी यह कहती है कि दिल्ली ने उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी देकर अपना मालगुजार नियुक्त किया था।
कांग्रेस की सरकार अचानक भीतरघात से गिरी।लेकिन वह प्रदेश की जनता में अपने लिए सहानुभूति पैदा नही कर पाई।यही वजह थी कि पार्टी बदलने वाले ज्यादातर विधायक उपचुनाव में जीत गए।उनकी जीत के बाद बीजेपी की अपनी बहुमत वाली सरकार हो गई।हालांकि सिंधिया के साथ बीजेपी में गए कई विधायक विधानसभा उपचुनाव हारे भी लेकिन उससे शिवराज और उनकी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा। शिवराज सिंह ने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर सबसे ज्यादा समय रहने का रिकॉर्ड बना दिया है।इस बात की उम्मीद कम है कि भविष्य में उनका रिकॉर्ड कोई तोड़ पाएगा।लेकिन यह भी तय है कि वे राज्य के अब तक के सबसे विवादित मुख्यमंत्री हैं। ग्रामीण पृष्ठभूमि के शिवराज जब मुख्यमंत्री बने थे तब यह माना गया था कि एक गरीब घर का व्यक्ति सत्ता के शिखर पर पहुंचा है। उन्होंने ऐसी कई योजनाएं शुरू कीं जो सीधे गरीब तबके से जुड़ी थीं।इन योजनाओं ने उनको पूरा फायदा भी पहुंचाया।वे पहले बच्चों के मामा बने।फिर बुजुर्गो के श्रवण कुमार भी।आजकल लाडली बहनों के भाई बने हुए हैं।
लेकिन शुरुआत से ही वे विवादों में घिरे रहे।सबसे पहले उन पर व्यक्तिगत आरोप डंपर कांड में लगे।उसके बाद प्रदेश में अवैध खनन का मामला पूरे देश में उछला।लेकिन व्यापम घोटाले ने प्रदेश को पूरी दुनिया में बदनाम किया।सीबीआई आज भी इस घोटाले की जांच कर रही है।इसमें उनके एक मंत्री वी कुछ अफसर गिरफ्तार हुए थे।कुछ मेडिकल कालेजों के मालिक भी पकड़े गए।उन के करीबी लोगों पर भी आरोप लगे।लेकिन सीबीआई ने उनसे कभी पूछताछ तक नहीं की। कमलनाथ से सत्ता लेने के बाद भी शिवराज पर आरोपों की बौछार होती रही है।व्यापम का उन्होंने नाम बदल दिया।लेकिन फिर भी घोटाले बंद नही हुए।कृषि विस्तार अधिकारी भर्ती घोटाले के बाद अब पटवारी भर्ती घोटाले ने उन्हें घेर लिया है।खुद उन्होंने इस घोटाले की जांच का ऐलान किया है।
इससे पहले पोषण आहार घोटाला कैग की रिपोर्ट के बाद सामने आया था।महिला एवम बाल विकास विभाग खुद उन्हीं के पास है।हालांकि सरकार लगातार कैग की रिपोर्ट को गलत बताती रही है लेकिन उसकी बात पर कोई भी भरोसा नही कर रहा है।
आदिवासियों और महिलाओं पर बढ़ते अत्याचार,आदिवासियों की जमीनें गैर कानूनी ढंग से दूसरों को दिए जाने,बुनियादी ढांचे के कमजोर होने,स्कूलों में शिक्षक और अस्पतालों में डाक्टर व दवाई न होने और प्रशासन में हर स्तर पर भ्रष्टाचार ने उनकी छवि को काफी हद तक प्रभावित किया है। हर स्तर पर उनकी पकड़ कमजोर हुई है।यही वजह है कि 17 साल से ज्यादा मुख्यमंत्री की कुर्सी पर रहने के बाद भी शिवराज आज विकास के नाम पर वोट नही मांग पा रहे हैं।वे दोनों हाथों से रेवड़ियां बांट रहे हैं।अलग अलग जातियों और समाजों को साधने की कोशिश कर रहे हैं।वे प्रदेश की सवा करोड़ महिलाओं को हर महीने एक हजार रुपए सरकारी खजाने से दे रहे हैं।कन्याओं के विवाह करा रहे हैं।लड़कियों की पढ़ाई का खर्च उठा रहे हैं।लेकिन बलात्कारी को फांसी की सजा का कानून बनाने के बाद भी प्रदेश की बच्चियों ,किशोरियों,महिलाओं, यहां तक कि बुजुर्ग महिलाओं को भी सुरक्षा उनकी सरकार नही दे पा रही।केंद्र सरकार के आंकड़े उनके दावों को दरकिनार कर रहे हैं।
आदिवासियों के लिए भी पिछले कई साल से बड़ी बड़ी योजनाएं चलाई जा रही हैं।लेकिन उन पर लगातार अत्याचार हो रहे हैं।होस्टल में घुसकर उनकी बच्चियों को अफसर छेड़ रहे हैं।युवाओं के ऊपर पेशाब की जा रही है।उधर दलितों के मुंह में मल भरा जा रहा है। सब कुछ निर्बाध गति से चल रहा है। शिवराज आजकल मोदी की तरह रैंप पर अकेले घूम घूम कर बातें तो बड़ी बड़ी कर रहे हैं।लेकिन जमीनी हकीकत उनकी बातों से बिल्कुल विपरीत है। उनका अपने मंत्रिमंडल पर भी नियंत्रण नहीं है।मंत्री आपस में लड़ रहे हैं।कांग्रेस से बीजेपी में आए लोगों की वजह से समस्या काफी बढ़ी है।उनकी वजह से पार्टी के पुराने लोग घर छोड़ रहे हैं।खुल कर नाराजी का इजहार कर रहे हैं।दिल्ली भी यह बात जानती है।इसीलिए वह खुद मोर्चा संभाल रही है।लेकिन इतना आसान उसके लिए भी नही है।
उधर कांग्रेस की हालत भी बहुत ज्यादा ठीक नही है।गांधी परिवार को राजनीति से बाहर करने की मोदी शाह की मुहिम लगातार जारी है।इसी वजह से बहुत लंबे समय बाद गांधी परिवार ने पार्टी का नेतृत्व छोड़ दिया है।
कमलनाथ बुजुर्ग और अनुभवी नेता हैं।लेकिन पार्टी की गुटबाजी के आगे वे भी बेबस हैं। कांग्रेस के कुछ नेता लगातार उनका विरोध कर रहे हैं।बीजेपी नेताओं से मिलीभगत का आरोप भी उन पर लगाया जा रहा है।लगातार हार के बाद भी कांग्रेस के नेता अपने मूल चरित्र से कतई हटे नही है। चूंकि जनता में शिवराज और उनकी सरकार को लेकर नाराजगी है।बीजेपी का आम कार्यकर्ता भी बदले हालात में निराश है।वरिष्ठ नेताओं को घर बैठाए जाने का भी डर है।साथ ही थोड़ा बहुत कांग्रेसीकरण भी बीजेपी का हुआ है। इन सब बातों से कांग्रेस और खासतौर पर कमलनाथ और उनके साथियों को लगता है कि वे चुनाव जीत रहे हैं।यही उनका मुगालता है। यह कमोवेश सच है कि मध्यप्रदेश में मुख्य मुकाबला बीजेपी और कांग्रेस में ही है।लेकिन कुछ छोटे दलों की भी नजर प्रदेश पर है।पिछले कुछ चुनावों में सपा और बसपा ने कुछ इलाकों में अपना प्रभाव दिखाया था।लेकिन धीरे धीरे वे दोनों ही हाशिए पर चले गए हैं।प्रदेश में कोई स्थानीय दल इस स्थिति में नही है जो प्रदेश स्तर पर त्रिकोण बना सके।
लेकिन ऐसा नहीं है कि कोशिश नही हो रही है।गुजरात में कांग्रेस के हाथ से जीत और पंजाब में सत्ता छीन चुकी आम आदमी पार्टी मध्यप्रदेश में पांव जमाने की पूरी कोशिश कर रही है।नगर निगम चुनाव में एक मेयर और कुछ पार्षदों की जीत ने उसका उत्साह बढ़ाया है।पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल मध्यप्रदेश का दौरा कर चुके हैं।संगठन को भी मजबूत किया जा रहा है।
हैदराबाद के असदुद्दीन ओवैसी की नजर भी प्रदेश पर है।वे मुसलमानों पर अत्याचार का मुद्दा बना कर अपने प्रत्याशी उतार सकते हैं। प्रदेश में करीब 22 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है।अभी तक उनके नाम पर कई पार्टियां अस्तित्व में आई और जल्दी ही खत्म भी हो गईं।दुखद पहलू यह है कि राज्य में स्वतंत्र आदिवासी नेतृत्व आज तक पनप ही नही पाया है।आदिवासी नेता बीजेपी और कांग्रेस के भरोसे ही रहे हैं। जिन्होंने अलग अस्तित्व बनाने की कोशिश की उन्हें या तो खरीद लिया गया या फिर रास्ते से हटा दिया गया।कांग्रेस और बीजेपी दोनों से ही आदिवासी नाराज हैं।अगर उन्हें सही दिशा मिल गई तो वे अलग राह पकड़ सकते हैं।इसका खामियाजा कांग्रेस को ही भुगतना पड़ेगा।
इस समय जो हालात हैं उनसे इतना तो साफ है कि बीजेपी की राह आसान नहीं है।वह 2018 की तुलना में और कमजोर हुई है।सिंधिया को साथ लेने की वजह से उसका अपना काडर और कार्यकर्ता दोनों ही नाराज हैं। हाशिए पर धकेले जा रहे नेताओं में भी गुस्सा है।इसका खामियाजा तो उसे भुगतना ही पड़ेगा।दिल्ली भी यह सच जानती है।इसलिए वह पूरी कमांड अपने हाथ में रखना चाहती है।वैसे दिल्ली के लिए विधानसभा से लोकसभा ज्यादा महत्वपूर्ण है।उसकी नजर नवंबर 23 पर नही मई 24 पर है।इसीलिए वह चौराहे पर खड़ी दिख रही है। और कांग्रेस.. वह सिर्फ जनता और बीजेपी कार्यकर्ता की नाराजगी के सहारे सत्ता में आने का सपना देख रही है।लेकिन अगर आम आदमी पार्टी ने ज्यादा ताकत लगा दी तो उसकी राह मुश्किल भी हो सकती है।क्योंकि खत्म होने की कगार पर आ चुकने के बाद भी उसके नेता चेत नही रहे हैं।उत्तर प्रदेश का हाल भी उन्हें नही दिख रहा है। फिलहाल सभी जुटे हुए हैं ! देखना यह होगा कि जनता किसे ताज पहनाती है।
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