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आज याद आए कल्पेश जी


कीर्ति राणा ,वरिष्ठ पत्रकार
                       इंदौर में रहे हुए कोई पत्रकार दिल्ली सहित अन्य महानगरों की पत्रकारिता को चुनौती दे सकता है तो बीते तीन-चार दशकों में एक ही नाम ही बार बार सामने आता रहा कल्पेश याग्निक।कल्पेश जी पर मेरा यह सब लिखना कई मित्रों को शायद गले ना उतरे लेकिन जो हकीकत है उसे कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है।

वो जो हर आदमी के निधन को अपूरणीय क्षति बताया जाता है तो कल्पेश जी का असमय चले जाना हिंदी पत्रकारिता की वाकई अपूरणीय क्षति है। यही नहीं उन असंख्य युवा पत्रकारों के लिए भी सपना टूट जाने जैसा ही है जो हिंदी पत्रकारिता में अपना नाम रोशन करने के लिए कल्पेश जी के साथ काम करना चाहते थे। कल्पेश जी जिस तरह खबर समझाते और रिपोर्टर से काम लेते थे, खबर छप जाने के बाद संबंधित रिपोर्टर को खुद पर भरोसा नहीं होता था कि इतनी दमदार खबर उसने ही लिखी है। 

उनके द्वारा फोटो जर्नलिस्ट नामकरण करने से पहले तक अखबारों से जुड़े इन मित्रों को फोटोग्राफर ही कहा जाता था। उनका तर्क रहता था स्टूडियो और शादी-पार्टी के लिए काम करने वाले फोटोग्राफर होते हैं। अखबारों में काम करने वाले आप लोग फोटो जर्नलिस्ट हो क्यों कि रिपोर्टर की चार कॉलम खबर से कई बार आप का फोटो खुद सारी खबर कह देता है।

मंथली मीटिंग हो या रिपोर्टर्स के साथ मार्निंग मीटिंग, वो पत्रकारों में अपनी बात समझाने के तरीके से इतना जोश भर देते थे कि रिपोर्टर को अहसास होने लगता था कि अखबार में सबसे महत्वपूर्ण वही है।कार्टूनिस्ट से लेकर डिजाइनर तक से वह लगातार तब तक मेहनत कराते रहते जब तक खबर विशेष या संडे स्टोरी के लिए मनमाफिक काम उभर कर नहीं आ जाता। 

जब जब वो पेज वन बनवाने बैठते थे उस दिन प्रिंटिंग इंचार्ज बार-बार आकर याद दिलाते रहते थे सर, आज फिर लेट हो जाएगा सिटी एडिशन। रात दो बजे अखबार छूटने के बाद पेज वन, सिटी आदि डेस्क के साथियों से उनकी चर्चा शुरु होती जिसमें हाथोंहाथ वो प्रिंट के लिए छोड़ चुके पेज वन को और कैसे बेहतर बना सकते थे यह समीक्षा तो करते ही साथ ही यह भी बताने से नहीं चूकते कि बाकी अखबार इसी खबर को चाहे जैसा खेलें लेकिन हमसे बेहतर नहीं कर पाएंगे। 

उनकी बात कहने के अंदाज, उनके आयडियेशन और सम्मोहित करने वाली शैली का ही यह असर रहा कि कई संपादक-पत्रकारों ने उनके मोबाइल नंबर से मिलते जुलते नंबर वाली सिम लेने, तो कई ने उनका फोटो अपने पर्स में रखने को उनकी तरह पत्रकारिता करने का सिद्ध मंत्र तक मान लिया था।

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