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पंचक्रोशी यात्रा - यात्रा एक अटूट श्रद्धा एवं अद्भुत विश्वास की


८२/८४ कायावरोहणेश्वर
पंचक्रोशी यात्रा - यात्रा एक अटूट श्रद्धा एवं अद्भुत विश्वास की
वैशाख के परम पवित्र मास मे सप्तपुरियों मे एक भगवान महाकाल की नगरी उज्जयिनी की पांच कोस (११८ किमी )की परिक्रमा
पंचक्रोशी यात्रा का द्वितीय पड़ाव
८२/८४ कायावरोहणेश्वर - महाकाल वन के दक्षिण मे स्थित दिव्य शिवलिंग                                                                    

भगवान शिव माता पार्वती से इस दिव्य लिंग की कथा कहते है, जो केवल कथा सुनने मात्र से मोक्ष प्रदान करती है |
    
वैवस्वत मन्वन्तर के काल में ब्रह्मा द्वारा दाएं एवं बाएं अंगुष्ठ से उत्पन्न दक्ष - प्रसूती की ५० कन्याओं में से १० कन्याओं का विवाह धर्म से हुआ, १३ कन्याओं का विवाह कश्यप ऋषि से हुआ , शेष २७ कन्याओं का विवाह चंद्रदेव से हुआ |रोहिणी उन्हें अत्यंत प्रिय थीं, शेष नहीं, जिससे रुष्ट होकर प्रजापति दक्ष ने चंद्रदेव को शाप दे दिया, चंद्र ने भी दक्ष को प्राचेतस होने का शाप दे दिया। दक्ष प्रजापति एवं माता प्रसूति के यहाँ माता सती ने जन्म लिया और इनका विवाह भगवान शिव से हुआ | एक समय प्रजापति दक्ष ने अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया किंतु महादेव व माता सती को आमंत्रित नहीं किया, जिससे रुष्ट होकर माता सती यज्ञ मे गयी और वहां समस्त देवताओ को उपस्थित देखा एवं भगवान शिव का अपमान होते देख उनके भयंकर क्रोध में नासिका से भद्रकाली प्रकट हुई | तब माता सती ने  देवताओ को विदेह करने का आदेश दिया और स्वयं योगशक्ति के द्वारा अपनी देह को भस्म कर लिया जिससे भगवान शिव अत्यंत क्रोधित हो उठे और उन्होंने वीरभद्र को प्रकट किया और उन्हें आदेश दिया की तुम दक्ष का यज्ञ विध्वंस करो | वीरभद्र एवं भद्रकाली ने इंद्र, यम, वरुण, वायु, कुबेर आदि देवताओ को विदेह कर दिया तथा दक्ष को पाशबद्ध कर लिया गया , वीरभद्र ने यज्ञ ध्वस्त कर दिया तब सभी देवताओं ने ब्रह्मा की शरण ली। तदनंतर ब्रह्मा मंदार पर्वत पर महादेव के पास आये तथा सारा वृतांत सुनाकर पूछा तुषित हुए देवगण का कायावरोहण कैसे होगा। महादेव ने उन्हें महाकाल वन स्थित दिव्य लिंग का पूजन अर्चन करने का आदेश दिया तब उन्हें महाकाल वन भेजकर वहां से दक्षिण दिशा में स्थित एक उत्तम लिंग के दर्शन करने को कहा जो सर्वसंपत्ति प्रदायक, दिव्य एवं सिद्धगण के लिए कामप्रद है। इस लिंग की कृपा से देवगण सदेह हो गये व तुषितगण अर्थात् उपदेवता पूर्ववत् हो गये। तभी से यह दिव्य लिंग कायावरोहरणेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुआ | जो मनुष्य इस दिव्य लिंग के दर्शन करता है, यम उसके लिए रक्षक की तरह होते हैं। वह कोटि जन्मार्जित पापों से मुक्त हो जाता है तथा कोटि कल्पों तक उसका पुनर्जन्म नहीं होता है। द्वादशी को इनका पूजन अर्चन करने से समस्त पापो से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करता है |

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