देवउठनी एकादशी : इस मुहूर्त में इस विधि से करें पूजा
पुरुषोत्तम मास के बाद कार्तिक महीने शुरू हो गया है। इस पावन महीने में त्योहारों की शुरुआत हो जाती है। इसी माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवउठनी एकादशी कहा जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को भगवान विष्णु चार माह के लिए सो जाते हैं और कार्तिक शुक्ल एकादशी को जगते हैं। चार माह की इस अवधि को चतुर्मास कहते हैं। देवउठनी एकादशी के दिन चतुर्मास का अंत हो जाता है और शादी-विवाह के काज शुरू हो जाते हैं। हिंदू धर्म में एकादशी व्रत का बहुत बड़ा महत्व है। हिंदी चंद्र पंचांग के अनुसार पूरे वर्ष में चौबीस एकादशी पड़ती हैं। लेकिन यदि किसी वर्ष में मलमास आता है, तो उनकी संख्या बढ़कर 26 हो जाती है। इनमें से एक देव उथानी एकादशी है। देवउठनी एकादशी कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की ग्यारहवीं तिथि को होती है। कहा जाता है कि आषाढ़ शुक्ल एकादशी को देव-शयन हो जाता है और फिर कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन, चातुर्मास का समापन होता है, देव चौदस त्योहार शुरू होता है। इस एकादशी को देवउठनी कहा जाता है। शास्त्रोक्त मान्यता है कि एकादशी का व्रत करने वालों के पितृ मोक्ष को प्राप्त कर स्वर्ग में चले जाते हैं। एकादशी का व्रत करने वालों के पितृपक्ष के दस पुरुष, मातृपक्ष के दस पुरुष और दूसरे पितृजन बैकुण्ठवासी होते हैं। एकादशी का व्रत यश, कीर्ति , वैभव, धन, संपत्ति और संतान को उन्नति देने वाला है। यहां पढ़ें कि इस वर्ष देवउठनी एकादशी कब मनाई जाएगी। साथ ही देवउठनी एकादशी की पूजा कैसे करें।
इसलिए कहा जाता है देवउठनी
कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को देवउठनी एकादशी के नाम से जाना जाता है। शास्त्रों में लिखा है कि इस दिन भगवान विष्णु चार महीने (जिनको चातुर्मास कहा जाता है) की योगनिद्रा के बाद शयन से जागृत होते हैं। इसलिए इस एकादशी को देवउठनी या देवोत्थान एकादशी के नाम से जाना जाता है और श्रीहरी की इस दिन विधि-विधान के साथ पूजा की जाती है। देवशयनी एकादशी को सभी शुभ कार्य बंद हो जाते हैं और देवउठनी एकादशी के साथ फिर से सभी शुभ कार्य प्रारंभ हो जाते हैं। इसलिए कार्तिक अमावस्या पर दीपावली के अवसर पर देवी लक्ष्मी की आराधना बगैर श्रीहरी के की जाती है, क्योंकि श्रीहरी उस वक्त योगनिद्रा में रहते हैं। देवउठनी एकादशी पर भगवान विष्णु के जागने पर देवी-देवता श्रीहरी और देवी लक्ष्मी की एक साथ पूजा कर देव दीपावली मनाते हैं। इसके साथ ही इस दिन से परिणय संस्कार यानी मांगलिक प्रसंगों का प्रारंभ भी हो जाता है।
देवउठनी एकादशी 2020 का शुभ समय:
ग्रेगोरियन चंद्र कैलेंडर के अनुसार, देवउठनी एकादशी बुधवार, 25 नवंबर को पड़ रही है।
एकादशी तिथि शुरू होती है: 25 नवंबर, 2020 दोपहर 02:42 बजे से
एकादशी तिथि समाप्त: 26 नवंबर, 2020 को शाम 05:10 बजे तक
कैसे करें एकादशी की पूजा:
-इस दिन भगवान विष्णु और मां लक्ष्मी की पूजा की जाती है। इस दिन को विष्णु को जगाने के लिए कहा जाता है।
-इस दिन, भक्त सुबह जल्दी उठते हैं, नए या साफ कपड़े पहनते हैं। फिर, भगवान विष्णु का व्रत मनाया जाता है।
-जब घर के आंगन में विष्णु के पैर बनाए जाते हैं। लेकिन अगर आँगन में धूप है, तो कदम ढँक जाते हैं। के चरणों का आकार बनाएं। लेकिन चरणों को धूप में रखें।
-जब ओखली में गेरू से पेंटिंग बनाई जाती है और आटा को फल, मिठाई, अनुभवी फल और गन्ना लगाकर कवर किया जाता है।
-दीपों को रात में घर के बाहर जलाया जाता है और जहां इसकी पूजा की जाती है।
रात में विष्णु की पूजा की जाती है। साथ ही साथ अन्य देवताओं की भी पूजा की जाती है।
-सुभाषी स्तोत्र का पाठ, भागवत कथा और पुराणादि का पाठ पूजा के दौरान किया जाता है। इसके साथ भजन भी गाए जाते हैं।
अगले दिन शालिग्राम-तुलसी विवाह
स्कंदपुराण के कार्तिक माहात्मय में भगवान शालिग्राम की स्तुति की गई है और कहा गया है कि इसके दर्शन से समस्त तीर्थों का फल प्राप्त होता है. प्रति वर्ष कार्तिक मास की द्वादशी को महिलाएं प्रतीक स्वरूप तुलसी और भगवान शालिग्राम का विवाह करवाती हैं। इस वर्ष गुरुवार, 26 नवंबर को शालिग्राम और तुलसी का विवाह होगा. उसके बाद ही हिंदू धर्म के अनुयायी विवाह आदि शुभ कार्य प्रारंभ करते हैं।
तुलसी से क्यों किया था भगवान विष्णु ने विवाह
शंखचूड़ नामक दैत्य की पत्नी वृंदा अत्यंत सती थी. बिना उसके सतीत्व को भंग किए शंखचूड़ को परास्त कर पाना असंभव था। श्री हरि ने छल से रूप बदलकर वृंदा का सतीत्व भंग कर दिया और तब जाकर शिव ने शंखचूड़ का वध किया। वृंदा ने इस छल के लिए श्री हरि को शिला रूप में परिवर्तित हो जाने का शाप दिया। श्री हरि तबसे शिला रूप में भी रहते हैं और उन्हें शालिग्राम कहा जाता है। इन्ही वृंदा ने अगले जन्म में तुलसी के रूप में पुनः जन्म लिया था। श्री हरि ने वृंदा को आशीर्वाद दिया था कि बिना तुलसी दल के कभी उनकी पूजा सम्पूर्ण ही नहीं होगी. जिस प्रकार भगवान शिव के विग्रह के रूप में शिवलिंग की पूजा की जाती है। उसी प्रकार भगवान विष्णु के विग्रह के रूप में शालिग्राम की पूजा की जाती है. शालिग्राम एक गोल काले रंग का पत्थर है जो नेपाल के गण्डकी नदी के तल में पाया जाता है, इसमें एक छिद्र होता है और पत्थर के अंदर शंख, चक्र, गदा या पद्म खुदे होते हैं।
क्या है शालिग्राम का महत्व
श्रीमद देवी भागवत के अनुसार जो व्यक्ति कार्तिक महीने में भगवान विष्णु को तुलसी पत्र अर्पण करता है। 10,000 गायों के दान का फल निश्चित रूप से प्राप्त करता है, वैसे भी नित्य शालिग्राम का पूजन भाग्य और जीवन बदल देता है। शालिग्राम का विधि पूर्वक पूजन करने से किसी भी प्रकार की व्याधि और ग्रह बाधा परेशान नहीं करती हैं। शालिग्राम जिस भी घर में तुलसीदल ,शंख और शिवलिंग के साथ रहता रहता है, वहां पर सम्पन्नता रहती ही है।
एकादशी का फलाहार और भोजन
एकादशी के व्रत में अन्न ग्रहण नहीं किया जाता है और इसमें सिर्फ एक समय फलाहार लेने का प्रावधान बताया गया है। एकादशी का व्रत करने वाले को इस दिन अनाज के साथ नमक, लाल मिर्च और दूसरे मसाले नहीं खाना चाहिए। इस दिन व्रत करने वाले को दूध, दही, फल, दूध से बनी मिठाइयां, ही कुटू और सिंघाड़े के आटे से बने व्यंजन ग्रहण करना चाहिए। इसके साथ ही द्वादशी तिथि को व्रत का पारण करने के साथ एक व्यक्ति के लिए एक समय की भोजन सामग्री यानी सीदा दान करने का भी विधान है।
एकादशी का व्रत इसलिए है महत्वपूर्ण
एकादशी के व्रत को सर्वश्रेष्ठ व्रतों में से एक माना गया है। एकादशी तिथि के स्वामी विश्वेदेवा हैं और इनकी आराधना से मनोकामना पूर्ण होती है। इनकी पूजा करने से सभी देवताओं को यह पूजा प्राप्त होती है। अक्सर ऐसा होता है जब पंचाग में दो दिनों तक एकादशी तिथि का उल्लेख किया जाता है। ऐसे में पहले दिन का व्रत गृहस्थों जैसे गणेश, सूर्य, शिव, विष्णु और दुर्गा की पूजा करने वालों के लिए होता है जबकि दूसरे दिन का व्रत वैष्णव संप्रदाय को मानने वाले करते हैं। पद्म पुराण में कहा गया है कि एकादशी का व्रत अक्षय पुण्य देने वाला है। ऋषि-मुनियों को भी इसका अनुष्ठान करना चाहिए।
यह है पौराणिक मान्यता
पौराणिक मान्यता है कि भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को श्रीहरी ने शंखासुर नाम के दैत्य का वध किया था। दोनों के बीच युद्ध काफी लंबे समय तक चला था। शंखासुर के वध के बाद जैसे ही युद्ध समाप्त हुआ भगवान विष्णु बहुत ज्यादा थक गए। इसलिए युद्ध समाप्त होते ही वह सोने के लिए प्रस्थान कर गए। भगवान इस दिन क्षीरसागर में जाकर सो गए और इसके बाद वह कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी को जागे।
पापनाशिनी के नाम से भी है ख्यात
विशेष नक्षत्रों का योग होने की दशा में यह तिथि जया, विजया, जयन्ती तथा पापनाशिनी नाम से जानी जाती है। शुक्ल पक्ष की एकादशी यदि पुनर्वसु नक्षत्र में आए तो इसको जया कहते हैं। शुक्ल पक्ष की ही द्वादशीयुक्त एकादशी यदि श्रवण नक्षत्र में हो तो इसको विजया कहते हैं। रोहिणी नक्षत्र पर आने वाली एकादशी जयन्ती कहलाती है। पुष्प नक्षत्र में आने वाली एकादशी पापनाशिनी कहलाती है। इन सभी तिथियों का अलग-अलग महत्व है।
कार्तिक माह की पूर्णिमा को होती है देव दीपावली
देव दीपावली हर साल कार्तिक माह की पूर्णिमा तिथि को मनाई जाती है, हिंदी पंचांग के अनुसार। देव दीपावली काशी में हर साल मनाई जाने वाली परंपरा है। इस वर्ष, देव दीपावली 29 नवंबर (रविवार) को मनाई जाएगी। देव दीवाली को देव दीवाली के नाम से भी जाना जाता है। देव दीपावली का त्यौहार त्रिपुरासुर पर भगवान शिव की विजय के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है। देव दीपावली को त्रिपुरोत्सव या त्रिपुरारी पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। इस वर्ष देव दीवाली की पूजा का शुभ समय और महत्व क्या है, जानने के लिए आगे पढ़ें।
देव दिवाली तिथि और समय
कार्तिक माह की पूर्णिमा तिथि 29 नवंबर को दोपहर 12:47 से शुरू हो रही है, जिसका समापन सोमवार 30 नवंबर को दोपहर 02:59 बजे होगा। इसलिए पंचांग के अनुसार, देव दीपावली रविवार 29 नवंबर को मनाई जाएगी।
देव दीपावली पूजा मुहूर्त
देव दीपावली पर पूजा का समय 2 घंटे 40 मिनट है। 29 नवंबर को देव दीपावली की पूजा शाम 5:08 बजे से 7:49 बजे के बीच की जानी चाहिए। यह माना जाता है कि इस त्योहार के शुभ मुहूर्त का बहुत बड़ा महत्व है क्योंकि यह पूरी तरह से चंद्रमा के दर्शन पर निर्भर है।
देव दीपावली का महत्व
देव दीपावली का उत्सव दिवाली के 15 दिन बाद आता है। कार्तिक अमावस्या के दिन और देव दीपावली कार्तिक पूर्णिमा के दिन होती है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, देवता के भक्त दीपावली मनाने के लिए कार्तिक पूर्णिमा के दिन काशी जाते हैं। देव दीपावली की शाम को गंगा पूजन और आरती होती है और काशी के सभी घाटों को दीपों से रोशन किया जाता है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन दान, स्नान, पूजा और यज्ञ का अनंत फल मिलता है। कार्तिक पूर्णिमा पर शाम को एक मत्स्योत्सव था, इसलिए इस दिन दान करने से 10 यज्ञों के समान पुण्य प्राप्त होता है।