आदि गुरु शंकराचार्य ने अल्प आयु में ही प्राप्त कर लिया था वेदों का ज्ञान, चारों दिशा में की थी धर्म की स्थापना
आदि गुरु शंकराचार्य का सनातन संस्कृति के प्रचार-प्रसार में महान योगदान रहा है। छोटी उम्र में उन्होंने इसके उत्थान और भव्य स्वरूप देने का जिम्मा संभाला और इसको देश-विदेश में नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया। उन्होंने भारतीय संस्कृति को जन-जन तक पहुंचाने के लिए देश के चारों कोनों में मठ की स्थापना की, जो आज भी वेद, पुराण और संस्कृति के प्रचार-प्रसार का केंद्र बने हुए हैं।
केरल के नंबूदरी ब्राह्मण परिवार में हुआ जन्म
जगतगुरू शंकराचार्य का जन्म केरल में मालाबार के कालपी ( काषल) गांव में नंबूदरी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनको जन्म के संबंध में कहा जाता है कि वह ईसा पूर्व 508 में जन्मे थे, जबकि कुछ विद्वान उनकी जन्म तिथि 788 ईस्वी को मानते हैं। उनके पिता का नाम शिवगुरु भट्ट और माता का नाम सुभद्रा था। शिव आराधना के पश्चात उनको पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई थी इसलिए उनका नाम शंकर रखा गया था।
कई विद्वानों को किया शास्त्रार्थ में किया परास्त
शंकराचार्य ने देश की संस्कृति को जानने के लिए देश के हर कोने की यात्रा की और जाति, समाज, भाषा और संप्रदायों में बंटे देश को एकसूत्र में पिरोने का काम किया। अपनी यात्रा के दौरान उनके कई वेद-शास्त्रों के ज्ञाताओं से भेंट हुई। उन्होंने उनकी शास्त्रार्थ की चुनौती को स्वीकार किया और विजय प्राप्त की। पराजित विद्वान बाद में उनके शिष्य बन गए। शंकराचार्य का सबसे प्रमुख शास्त्रार्थ वैदिक विद्वान मंडन मिश्र की धर्मपत्नी भारती से हुआ था।
जब वे तीन साल के थे तब उनके पिता का देहांत हो गया था। छह साल की उम्र में वे प्रकांड पंडित बन गए और आठ साल की उम्र में उन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया। बालक शंकर ने युवावस्था में केरल से नर्मदा किनारे तक पहुंचने के लिए दो हजार किलोमीटर तक की यात्रा की और गोविन्द नाथजी से संन्यास की दीक्षा ली थी। उन्होंने चार साल तक गुरु सेवा करते हुए वेदों का अध्ययन किया।
42 दिनों तक चले इस शास्त्रार्थ में वो मंडन मिश्र से तो जीत गए थे, लेकिन कहा यह जाता है कि उनकी पत्नी भारती मिश्र से हार गए थे। शास्त्रार्थ के 21वें दिन भारती ने उनके काम और संतान उत्पत्ति के बारे में सवाल पूछा था, जिसका जवाब शंकराचार्य जैसे संन्यासी के पास नहीं था। उन्होंने इस सवाल का जवाब देने के लिए भारती देवी से छह मास का समय लिया और जवाब तलाशकर भारतीदेवी पर विजय प्राप्त की थी।
चार मठों की स्थापना
उन्होनें समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने के लिए छह संप्रदाय वाली व्यवस्था की शुरूआत की और देश के प्रमुख देव प्रतिष्ठानों के लिए नए नियम बनाएं। आदि गुरु शंकराचार्य ने अद्वैत दर्शन की स्थापना की, जिसमें ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकारते हुए ईश्वर और ब्रह्म में तादाम्य स्थापित करने पर जोर दिया। उच्चकोटी के विद्वान होने के साथ वह बहुत अच्छे कवि भी थे। उन्होंने देव स्तुति के लिए 72 भक्तिमय भजन और स्तुतियां लिखी। इसके साथ भगवदगीता, ब्रह्म सूत्र और 12 उपनिषदों पर टीकाएं भी लिखीं।
अद्वैत वेदांत दर्शन पर शंकराचार्य ने 23 किताबें लिखी। उन्होंने देश के चार कोनों में चार मठों रामेश्वरम में श्रंगेरी मठ, जगन्नाथ पुरी में गोर्वधन मठ, बद्रिकाश्रम में ज्योतिर्मठ और द्वारका में शारदा मठ की स्थापना की। उनका देह अवसान 32 साल की उम्र में केदारनाथ के समीप हुआ था। उनकी मृत्यु 474 ईस्वी पूर्व मानी जाती है। कहीं पर यह तिथि 820 ईस्वी बताई गई है।