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ये फल मिलता है वरूथिनी एकादशी के व्रत से



सनातन संस्कृति में व्रत का बड़ा महत्व है। शारीरिक और मानसिक शुद्धि के लिए व्रत करने का विधान धर्मशास्त्रों में बताया गया है। ऐसा ही एक प्रमुख व्रत एकादशी तिथि का है। इस व्रत के करने से जन्म-जन्मांतर के संचित पापों का नाश होता है और सभी सुखों को भोगने के बाद मोक्ष की प्राप्ति होती है। वैशाख मास के कृष्ण पक्ष को आने वाली एकादशी को वरुथिनी एकादशी कहा जाता है। इस साल यह एकादशी 18 अप्रैल शनिवार को है।

वरुथिनी एकादशी की कथा
एक बार ज्येष्ठ पांडुपुत्र धर्मरा‍ज युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से वैशाख मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का महात्मय पूछा और निवेदन किया कि हे यदुकुलश्रेष्ठ! आप मुझे वैशाख मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का विधान और उससे मिलने वाले फल के बारे में बताइये। तब भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि हे राजेश्वर! इस मास की एकादशी का नाम वरुथिनी है।यह एकदशी सौभाग्य को प्रदान करने वाली, समस्त पापों का नाश करने वाली और अंत में मोक्ष प्रदान करने वाली है। यदि कोई अभागिनी स्त्री इस वत को करे तो उसको अखण्ड सौभाग्य की प्राप्ति होती है। वरुथिनी एकादशी के व्रत के प्रभाव से राजा मान्धाता को स्वर्ग की प्राप्ति हुई थी।

दस हजार वर्ष की तपस्या के बराबर है वरुथिनी एकादशी का व्रत
वरुथिनी एकादशी का फल दस हजार वर्ष तक तपस्या करने के बराबर होता है। कुरुक्षेत्र में सूर्यग्रहण के समय एक मन सोने का दान करने से जिस फल की प्राप्ति होती है वही फल मात्र वरुथिनी एकादशी का व्रत करने से मिल जाता है। वरूथिनी एकादशी के व्रत को करने से मनुष्य इस लोक में समस्त सुखों को भोगकर परलोक में स्वर्ग को प्राप्त करता है। धर्मशास्त्रों में बताया गया है कि हाथी का दान घोड़े के दान से श्रेष्ठ है। हाथी के दान से भूमि दान, भूमि के दान से तिलों का दान, तिलों के दान से सोने का दान और सोने के दान से अन्न का दान श्रेष्ठ है। अन्न दान के बराबर कोई दान नहीं है। अन्नदान से देवता, पितृ और मनुष्य तीनों तृप्त होते हैं। शास्त्रों में अन्नदान को कन्यादान के बराबर माना है।

लेकिन वरुथिनी एकादशी के व्रत से अन्नदान और कन्यादान दोनों के बराबर फल मिलता है। जो मनुष्य लालच के वशीभूत होकर कन्या का धन लेते हैं वे प्रलयकाल तक नरक को भोगते हैं या उनको अगले जन्म में बिलाव बनकर जन्म लेना पड़ता है। जो मनुष्य स्नेह और धन सहित कन्या का दान करते हैं, उनके पुण्य के फल को स्वयं चित्रगुप्त भी लिखने में असमर्थ हैं।

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