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ममता भाव का त्याग ही आकिंचन धर्म- प्रभा दीदी


उज्जैन। जीव संसार में मोहवश जगत के सब जड़ चेतन पदार्थों को अपनाता है। किसी के पिता, माता, भाई, बहिन, पुत्र, पति, पत्नी, मित्र आदि के विविध सम्बंध जोड़कर ममता करता है। मकान, दुकान, सोना, चाँदी, गाय, भैंस, घोड़ा, वस्त्र, बर्तन आदि वस्तुओं से प्रेम जोड़ता है। शरीर को तो अपनी वस्तु समझता ही है। इसी मोह ममता के कारण यदि अन्य कोई व्यक्ति इस मोही आत्मा की प्रिय वस्तु की सहायता करता है तो उसको अच्छा समझता है, उसे अपना हित मानता है। जो इसकी प्रिय वस्तुओं को लेशमात्र भी हानि पहुँचाता है उसको अपना शत्रु समझकर उससे द्वेष करता है, लड़ता है, झगड़ता है। इस तरह संसार का सारा झगड़ा संसार के अन्य पदार्थों को अपना मानने के कारण चल रहा है। अन्य पदार्थों की इसी ममता को परिग्रह कहते हैं।

       यह बात श्री महावीर तपोभूमि में पर्यूषण के दसवें दिन आकिंचन धर्म पर प्रवचन के दौरान प्रभा दीदी ने कही। पर्वाधिराज पर्युषण पर्व के दसवे दिन सभी जैन मंदिरों में आकिंचन धर्म की पूजा हुई। दिगंबर जैन समाज सचिव सचिन कासलीवाल के अनुसार श्री महावीर तपोभूमि में ब्रह्मचारिणी प्रभा दीदी के सानिध्य में सोमवार को आकिंचन धर्म की पूजा के साथ-साथ प्रवचन भी हुए। जिसमें उन्होंने कहा कि आत्मा के अपने गुणों के सिवाय जगत में अपनी अन्य कोई भी वस्तु नहीं है। इस दृष्टि से आत्मा अकिंचन है। अकिंचन रूप आत्मा-परिणति को आकिंचन करते हैं। अकिंचन धर्म का अर्थ है इस जगत में जो कुछ भी है वह मेरा नहीं है जो कुछ है वह यहीं का है और यही छूट जाना है। मैं इस जग में अकेला आया था अकेला हूं और अकेला ही चला जाऊंगा। यह संसार का जो मेला दिख रहा है यह 2 दिन का है। मैं तो यहां सिर्फ और सिर्फ मुसाफिर हूं मेरा यहां पर अपना कुछ नहीं है। यह नाते रिश्ते तो जब तक मेरी आंख खुली है तब तक ही दिखाई देंगे। आंखें मूंदे ही आगे की यात्रा मुझे अकेले ही करना है। मैं एकाकी हूं एकत्व लिए मुझे चलना है एकत्व की इसी परिभाषा को आकिंचन धर्म कहा जाता है। 

       अपने प्रवचन के माध्यम से सभी शिविरार्थियों और धर्मावलंबियों को समझाते हुए प्रभा दीदी ने कहा कि उत्तम त्याग धर्म के दिन हमने देखा कि आत्म कल्याण हेतु बाह्य परिग्रह तथा अभ्यन्तर परिग्रह क्रोध, मान, माया तथा लोभ से भी पूर्णतः निरवृत्त हो जाने का नाम आकिंचन्य है। आकिंचन्य का अर्थ है जहाँ कुछ भी शेष ना हो। ’उत्तम आकिंचन्य गुण जानों,’ ’परिग्रह चिंता दुख ही मानों।’’फाँस तनक सी तन में सालै,’’चाह लंगोटी की दुख भालै।।’ ’अर्थात -’उत्तम आकिंचन्य गुण को धारण करना चाहिए क्योकिं इसके विपरीत परिग्रह चिंता व दुख का ही कारण होता है। जिस प्रकार शरीर में लगी छोटी सी भी फाँस का दुखद अनुभव पूरे शरीर में होता है उसी प्रकार जीव के पास थोड़ा भी परिग्रह दुख का कारण रहता है। दिगम्बर मुनिराज सभी प्रकार के परिग्रह त्यागी होने के कारण संसार में सबसे अधिक सुखी होते हैं। ’मनुष्य कभी भी परिग्रह रहित निर्ग्रन्थ अवस्था धारण किए बिना सबसे अधिक सुखी हो ही नहीं सकता। संपूर्ण शिविर की व्यवस्था मुख्य संयोजक रमेश जैन एकता ज्वेलर, ट्रस्ट के अध्यक्ष अशोक जैन चायवाला, राजेंद्र लूहाडिया, धर्मेंद्र सेठी, कमल मोदी, प्रदीप बड़जात्या, शिखर जैन, हेमंत गंगवाल, यतींद्र मोदी, संजय जैन, सुशीला देवी कासलीवाल, सारिका जैन, मोनिका सेठी, ज्योति जैन, चंदा बिलाला, रंजना जैन चायवाले, सुनील जैन ट्रांसपोर्ट, विकास सेठी, विमल जैन, पुष्पराज जैन, हंस कुमार जैन, धीरेन्द्र सेठी, पवन बोहरा, सुनील जैन, दिनेश जैन सुपर फार्मा, फूलचंद छाबड़ा, सुशील गोधा, इंद्रमल जैन, ओम जैन, अतुल सोगानी, विनोद बड़जात्या, तेजकुमार विनायका, निर्मल सोनी, गिरीश बड़जात्या, जयश जैन, अशोक कासलीवाल, विकास सेठी, डॉ. एस.के. जैन, कमल मोदी, बसंत जैन, सौरभ कासलीवाल, पुष्पराज जैन, केसी जैन, सुरेश कासलीवाल, राजेन्द्र लोहाडिया, धर्मेन्द्र सेठी, संजय जैन, सुनिल जैन, विमल जैन, भूषण जैन, सोहनलाल जैन, वीरसेन जैन, पं. विशाल जैन, गुलजारीलाल बाबा, प्रज्ञा कला मंच की महिलाएं एवं प्रज्ञा पुष्प की बालिकाओं द्वारा की गई।

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