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बादल की बात - कांग्रेस में भितरघात


वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल जी ने अपने मन की बात बताते हुए कहा कि आज हम बात कर रहे है पक्ष और प्रतिपक्ष के बारे में । किसी भी लोकतंत्र में पक्ष और प्रतिपक्ष दोनो की सेहत का मजबूत होना बहुत जरूरी है। अगर पक्ष मजबूत है और प्रतिपक्ष ठीक नहीं है उसकी सेहत दुर्बल है तो ये लोकतांत्रिक नजरिये से ठीक नहीं है। और इन दिनों प्रतिपक्ष की सेहत कमजोर है। कमजोर ही नहीं बहुत कमजोर है। मेरा इशारा कांग्रेस की तरफ है जो राजस्थान में राजनैतिक घटनाक्रम अभी घटा है और चल रहा है। जिस तरह से नाटकीय परिवर्तन हो रहा है वह भी हैरत में डालने वाला है और दूसरी ओर पहले हमने देखा था कि मध्यप्रदेश में माधवराव सिंधिया के पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया जिस तरह से कांग्रेस छोड़कर भारतीय जनता पार्टी में गए थे वचो भी हमें उस समय चौकाने वाला लगा था। लेकिन  गड़बड़ कहा है बात कहा से बिगडती है कि कांग्रेस की जो नौजवान पीढ़ी है वो वरिष्ठ पीढ़ी के साथ तालमैल नहीं बैठा पा रही है। क्या शिखर स्तर पर नेतृत्व में भी यही बीमारी है। या सिर्फ मैदानी कार्यकर्ताओ और नेताओं के बीच में है। हमने देखा था कि राजस्थान में जब चुनाव हुए थे तो सचिन पायलेट प्रदेश अध्यक्ष के रूप में एक बेहद कद्दावक और मजबूत चेहरे के रूप में उभरे थे। उनकी मेहनत रंग लाई थी और 107 विधायक कांग्रेस के जीत के आये थे। अशोक गेहलोत यकीनन बहुत पुराने नेता है। खाती नेता है इंदिरा गांधी ने उनको अपने मंत्री मंडल में शामिल किया था। लेकिन एक पीढ़ी का जो अंतर है वो अशोक गेहलोत और सचिन पायलेट के बीच फासला बनता रहा। दोनों के खेमे बनते गए और संवादहीनता की स्थिति बन गई और नौबत यहां तक पहुंची कि इस समय मुख्यमंत्री अशोक गेहलोत जो गृह मंत्री भी है उन्हें एक नोटिस भेजकर मामला दर्ज कर एक जांच के बहाने सचिन पायलेट से संवाद करना पड़ा। ये भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के इतिहास में संभवतः पहली बार ऐसे हुआ है कि एक मुख्यमंत्री अपने ही उपमुख्यमंत्री के साथ इस तरह का व्यवहार कर रहा है। यानि दो पीढ़ियों के बीच में ये द्वंद चल रहा है। दूसरा उदाहरण मध्यप्रदेश का था जब ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस के प्रचार में मेहनत की थी काफी मेहनत की थी। लेकिन वहां एक बुजुर्ग पीढ़ी के कमलनाथ प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर थे। और जब चुनाव बीत गए चुनाव हो गए तो कमलनाथ को मुख्यमंत्री बनाया गया एक पुरानी पीढ़ी पर भरोसा करते हुए कि उनके पास अनुभव है कांग्रेस घिरी हुई है कुछ समय पुराने लोगों को देना चाहिए। ताके कांग्रेस की खोई हुई साख को एक बार पुनः स्थापित किया जा सके। उस समय ये कारण स्वाभाविक सा लगा था और यही बात राजस्थान के संदर्भ में थी। कि जब अशोक गेहलोत को सत्ता सौंपी गई लेकिन हुआ क्या ? हर पुरानी पीढ़ी अपनी नई पीढ़ी से असुरक्षा महसूस करती है। असुरक्षा महसूस करने के कारण दोनों ही राज्यों में हमने देखा जो कांग्रेस की सत्ता थी कांग्रेस की हुकुमत थी। वो दोनों में ही सेंध लगी। केन्द्र बढ़ते गए और अन्ततः मध्यप्रदेश में तो पार्टी को अपनी सरकार गंवानी पड़ी और राजस्थान को जो घटनाक्रम कह रहा है वो अभी आने वाले एक दिन दो दिन तीन दिन में संभवतः साफ हो जायेगा। लेकिन अगर हम पीढ़ीयों की बात करते है दो पीढ़ियों के बीच में तालमैल नहीं होने की बात करते है तो यही बात पंजाब में भी आती है। कैप्टन और नवजोत सिंह सिद्धू की बात आती है। हरियाणा में हुड्डा और उनके प्रतिद्वंदियों की बात आती है इसी तरह से छत्तीसगढ़ में भी बात आती है। छत्तीसगढ़ में ये अच्छी सी बात है कि वहां पीढ़ियों का द्वंद नहीं है वहां दो समान उम्र के दो शिखर नेताओं में रस्साकसी थी। लेकिन वो उस तरह से नजर नहीं आ रही है। छत्तीसगढ़ छोटा राज्य है इसलिए आपसी रिश्तों पर भी वो ध्यान देते है। लेकिन मध्यप्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस का इस तरह से द्वंद ठीक नहीं है और जब ऐसा होता है तो हो सकता है इसमें कांग्रेस का कोई एक नेता हारे , कांग्रेस का कोई दूसरा नेता जीते। हार जीत पार्टी में होती रहती है लेकिन मेरी नजर में हारता लोकतंत्र है। क्योंकि लोकतंत्र में जैसा कि मैने अभी कहा कि यदि पक्ष मजबूत है और प्रतिपक्ष की सेहत ठीक नहीं है तो वो लोकतंत्र के लिये ठीक नहीं है और यदि प्रतिपक्ष मजबूत है और पक्ष की सेहत ठीक नहीं है तो वह भी लोकतंत्र के लिये ठीक नहीं है। भारतीय जनता पार्टी की ओर अगर वो कोई इशारा करते है राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गेहलोत कहते है कि भारतीय जनता पार्टी के दो विधायक कांग्रेस के लोगों को खीचंना चाहते थे, खरीदना चाहते थे। मध्यप्रदेश में भी यही आरोप लगा था। तो ये कहने के लिए बात ठीक लगती है। लेकिन कांग्रेस क्या इतनी भोली और मासूम है कि जो प्रतिपक्ष को इस तरह से आरोप लगाकरके अपने आप को अलग कर लेना चाहती है। मुझे लगता है कि कांग्रेस के शिखर नेताओं को ये सोचना होगा, कांग्रेस के शिखर नेताओं को इस पर ध्यान देना होगा के आज की राजनीति, मौजूदा राजनीति अब वो नहीे रही जैसी कि किसी जमाने में हुआ करती थी। तो अगर भारतीय जनता पार्टी अपने सारे दांव पेंच, अपने तर्कश के सारे तीर कांग्रेस की राजनीति को कम करने के लिए निकाल रही है तो कांग्रेस को किसने रोका है ? इश्क और जंग में सब कुछ जायज है जब राजनीति एक जंग के मैदान के रूप में तब्दील हो गई है। तो कांग्रेस को भी अपने सारे तीर और तरकश निकाल देने चाहिए। लेकिन ये एक अजीब सी बात है कि अपनी पार्टी के ही लोगों पर वो तीर चलने लग जाते है। तो वो पार्टी की सेहत को नुकसान करते है और संदेश कहीं न कहीं ये जाता है कि जो कांग्रेस का आला कमान है कहीं उसमें भी तो इस मामले में मतभेद नहीं है। और ांग्रेस आला कमान की लेटलतीफी, देर से फैसला लेने के कारण कहीं बहुत नुकसान तो नहीं हो रहा है। और इस देश में जो लोकतंत्र के समर्थक है और प्रतिपक्ष की एक मजबूत धारा के समर्थक है उनके लिए ये निराशा की घड़ी है क्योंकि क्षेत्रीस पार्टीयों में भी आंतरिक लोकतंत्र नहीं है। क्षेत्रीय पार्टीयां भी प्रतिपक्ष की नुमाइंदगी नहीं कर पा रही है।

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