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परिवार-समाज को बेटियों के प्रति संवेदनशील और जागरूक होने की आवश्यकता है- न्यायाधीश अलका दुबे



उज्जैन। मानव अधिकारों को दो श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है- एक जीवित रहने का अधिकार, दूसरा गरिमा के साथ जीवन व्यतीत करने का अधिकार। इन दोनों की रक्षा के लिए कानून बनाए गए हैं। मानव को सम्मानपूर्वक जीवन जीने का अधिकार मिले एवं उन अधिकारों को स्थापित करने में वर्तमान युग में बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने अद्वितीय भूमिका निभाई है। मानव सभ्यता के विकास में डॉ. अम्बेडकर का अभूतपूर्व योगदान है। मानव अधिकार का मूल भारतीय संस्कृति में समाहित है। जीवों पर दया, मनुष्य-मनुष्य समान अर्थात् ‘‘वसुधैव कुटुंबकम्’’ का सिद्धान्त मानव-अधिकार ही है। उक्त विचार प्रथम अपर जिला एवं सत्र न्यायाधीश माननीय श्रीमती अलका दुबे ने विक्रम विश्वविद्यालय की डॉ. अम्बेडकर पीठ द्वारा ‘‘अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार दिवस’’ (10 दिसम्बर) पर ‘‘बालिकाओं के कानूनी अधिकार’’ विषय पर संस्कार पब्लिक स्कूल के विद्यार्थियों के लिए कहीं।
माननीय न्यायाधीश श्रीमती दुबे ने कहा मानव को जन्म से पहले ही अधिकार आ जाते हैं। धरती पर जीने का समान अधिकार ईश्वर प्रदत्त है। डॉ. अम्बेडकर ने विश्व के संविधानों का गहन अध्ययन कर हर राष्ट्र की विशिष्ट विशेषता को ग्रहण किया और भारत का संविधान बनाया। दरअसल संविधान समस्त कानूनों की कसौटी है। संविधान का अनुच्छेद 14,15, 16, 17 समता का अधिकार जो निःसंदेह समस्त भारतीयों के लिए हैं। न्यायाधीश मैडम श्रीमती दुबे ने ‘बालिकाओं के समस्त कानूनी अधिकारों की विस्तृत जानकारी दी। मैडम दुबे ने 2005 का उत्तराधिकार नियम, घरेलू हिंसा अधिनियम 2005, सम्पत्ति का अधिकार जैसे महत्त्वपूर्ण कानूनी प्रावधानों पर इनका उल्लंघन करने पर भारतीय दंड संहिता की धाराओं की जानकारी दी। वर्तमान समय में बालिकाओं, महिलाओं को अपनी सुरक्षा के प्रति अत्यन्त जागरूक रहना है। उनके साथ हुए किसी भी व्यवहार को छुपाए नहीं, बल्कि परिवार, अपने शिक्षक या फिर किसी भी थाने में शिकायत करें। अपनी समस्याओं को साझा करें और परिवार, शिक्षक और समाज को बेटियों के प्रति संवेदनशील, जागरूक होने की आवश्यकता है।
विषय प्रवर्तन करते हुए विशेष अतिथि विधिवेत्ता, अभिभाषक डॉ. बी.एल. शर्मा ने कहा मानवाधिकार का तात्पर्य प्रत्येक मनुष्य को केवल मनुष्य होने के नाते, बिना किसी भेदभाव के, बिना किसी अन्य योग्यता के मिलने चाहिए, जिनको पाने और उपभोग करने का वह अधिकारी है। मानवाधिकार का आधार भौतिक और आध्यात्मिक दोनों है। डॉ. शर्मा ने मानवाधिकार की उत्पत्ति का मुख्य उद्देश्य ही मानव अत्याचार को समाप्त करना और उन्हें प्राकृतिक रूप से जीवन जीने की सद्इच्छा है। डॉ. शर्मा ने मध्यकालीन युग में मानवाधिकारों की स्थापना के लिए किए गए संघर्ष और क्रांतियों की जानकारी दी। 1215 का मैग्नाकार्टा, 1989 का बिल ऑफ राइट्स, 1789 में हुई क्रान्ति जिससे मानव अधिकारों की फांसीसी घोषणा हुई। रूस की 1917 की क्रांति जिससे जारों का शासन समाप्त हुआ एवं समाजवाद की स्थापना हुईं संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवाधिकारों की सार्वभौतिक घोषणा जनरल असेम्बली ने 24 अक्टूबर, 1948 को स्वीकार की, जिसमें 30 अनुच्छेद हैं। जिनमें मनुष्य के आज तक के विचार, मंथन के परिणामस्वरूप मान्य सभी मानवाधिकारों तथा स्वतंत्रताओं को शामिल किया गया है।
स्वागत भाषण व डॉ. अम्बेडकर पीठ की 18 वर्षीय गतिविधियों का लेखा-जोखा पीठ के प्रभारी निदेशक डॉ. एस.के. मिश्रा ने प्रस्तुत किया।कार्यक्रम का संचालन शोध अधिकारी डॉ.निवेदिता वर्मा ने किया। आभार संस्कार पब्लिक स्कूल के संस्थापक श्री ललित श्रीमाल ने माना। डॉ. अम्बेडकर पीठ की ओर से डॉ. एस.के. मिश्रा ने व संस्कार पब्लिक स्कूल की ओर से सचिव डॉ. अर्चना परमार,प्राचार्य श्रीमती सुनिता पाटिल ने मुख्य अतिथि वक्ता माननीय न्यायाधीश श्रीमती अलका दुबे व विशेष अतिथि डॉ. बी.एल. शर्मा को स्मृति-चिह्न व शाल-श्रीफल से सम्मान किया। 

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