माता-पिता बच्चों के 'प्रथम गुरू' आहूति सत्र में शिक्षा पद्धति पर हुआ गहन विचार-विमर्श
उज्जैन । द्वितीय आहूति सत्र में अंतरराष्ट्रीय विराट गुरुकुल सम्मेलन के दूसरे दिन गुरूकुल के पांच स्तम्भों पर चर्चा आयोजित की गई। गुरूकुल के पांच स्तम्भ- अभिभावकों की भूमिका, आदर्श छात्र, आचार्य के दायित्व, संचालकों का योगदान तथा शिक्षाविद् विमर्श विषयों पर विद्वानों ने परिचर्चा की। पांच समानान्तर सत्रों में गुरूकुल शिक्षा व उससे जुड़े अभिन्न पहलुओं से आम लोगों को अवगत कराया गया।
गुरूकुल शिक्षा में अभिभावकों की भूमिका विषय पर मुख्य वक्ता के रूप में अपने विचार भारतीय शिक्षण मण्डल नागपुर की श्रीमती उज्वला पाटिल ने व्यक्त करते हुए बताया कि माता-पिता हर बच्चे के लिए प्रथम गुरू होते हैं। घर से ही बच्चे को सर्वप्रथम बच्चे को शिक्षा प्राप्त होती है। आज के आधुनिक युग में अभिभावकों के पास कामकाज के चलते बच्चों के लिए पर्याप्त समय नहीं है। समय के अभाव के चलते बच्चों और अभिभावकों के वैचारिक दूरी बढ़ती जा रही है। बच्चों को भावनात्मक, शारीरिक एवं बौद्धिक विकास के हर स्तर पर अभिभावक के सहयोग की आवश्यकता अनिवार्य रूप से है। अभिभावकों को बच्चों में हर उम्र में होने वाले बदलावों को समझने की कोशिश करनी होगी। सर्वप्रथम अभिभावकों को यह समझना होगा कि माता-पिता बनना पूर्ण रूप से मानसिक प्रक्रिया है, सिर्फ बच्चे को जन्म देने से ही कोई माता-पिता नहीं बनता। अगर बच्चा माता-पिता की बात नही मानता है तो कहीं न कहीं माता-पिता द्वारा बच्चे के समझने में कमी है। गुरूकुल शिक्षा ही एक मात्र ऐसी शिक्षा पद्धति है, जिसमें बच्चों को बेहतर ढंग से समझा जाता है। जिस प्रकार गुरूकुल शिक्षा में बच्चों के मानसिक स्तर को समझते हुए उनसे बात की जाती है, उनकि जिज्ञासा का समाधान करते हुए हर प्रश्न का उत्तर दिया जाता है, वैसे ही अभिभावकों को बच्चों से स्वस्थ चर्चा कर उनके विचार जानने की कोशिश करनी चाहिए और बच्चों की गलतियां भी प्यार से बतानी चाहिए। अभिभावकों के लिए धैर्य ही बच्चों को एक अच्छा नागरिक बनाने का मूल मंत्र है।
इस विषय की अध्यक्षता करते हुए श्रीमती अरूणा सारस्वत ने बताया कि बच्चें गुरूकुल में शिक्षा प्राप्त करें, या किसी विद्यालय में अभिभावकों की भूमिका एक सी ही रहती है। अंतर सिर्फ इतना है कि गुरूकुल में बच्चों को भेजने के बाद अभिभावकों को अपनी परिकल्पना से निर्मित अपेक्षाओं को भूल जाना चाहिए क्योंकि गुरूकुल से शिक्षा प्राप्त कर विद्यार्थी जीविकोपार्जन के लिए किसी पर निर्भर नहीं होता अपितु वह स्वरोजगार प्रारंभ कर अन्य लोगों को भी रोजगार प्रदान कर सकता है। श्रीमती सारश्वत ने यह भी बताया कि गुरूकुल में किसी भी विद्यार्थी पर इसी प्रकार किसी भी प्रकार का बल प्रयोग नहीं किया जाता है। यदि कोई विद्यार्थी अनुशासन तोड़ता है तो गुरूकुल के आचार्य उससे एकांत मे बात करके उसके आक्रोश का कारण पता करते हैं। जैसे ही विद्यार्थी को उसके प्रश्नों का उत्तर मिल जाता है, सारा आक्रोश त्याग देता है। अभिभावकों को भी बच्चों के साथ मित्रवत होना चाहिए। अगर वे बच्चों से प्रेम से व्यवहार करें तो अनुशासन तोड़ने जैसी समस्या कभी आएगी ही नही। अभिभावकों को गुरूकुल पर विश्वास करना होगा कि उनका बच्चा गुरूकुल से शिक्षा प्राप्त कर एक अच्छा नागरकि बनकर देश की प्रगति में सहयोग करेगा।
संवेदनशीलता, जिजीविशा और विजय की इच्छा
रखने वाला होता है आदर्श विद्यार्थी
गुरूकुल शिक्षा में आदर्श छात्र विषय पर परिचर्चा में वक्ता के रूप में सुश्री अरुंधती कावड़कर ने आदर्श छात्र के गुणों से आम लोगों को अवगत कराया। उन्होंने बताया कि एक आदर्श छात्र जिजीविशा से परिपूर्ण, संवेदनशील तथा विजय प्राप्त करने की इच्छा रखता है। गुरू की बात को आत्मसात करना ही एक आदर्श छात्र का कर्तव्य होता है। जिस छात्र में गुरू के प्रति श्रद्धा का भाव होगा वही ज्ञान प्राप्त कर पायेगा। आदर्श छात्र ज्ञान का अर्जन स्वतंत्र रूप से विचार करने की क्षमता के साथ करता है। ज्ञान की प्राप्ति के लिए "मन का वैभव अनिवार्य है" जिस छात्र में श्रद्धा से ज्ञान प्राप्त किया होगा उसके आचार-विचार में कोई अंतर नहीं देखने को मिलेगा। वह छात्र जो अर्जित ज्ञान को जीवन में लागू करने की इच्छाशक्ति के साथ किसी कार्य को प्रारंभ करता है तथा अनेक कठिनाइयों के बाद भी उसे अंत तक पहुंचाता है वही एक आदर्श छात्र कहलाता है। इस सत्र के अध्यक्ष आचार्य महाबलेश्वर शास्त्री थे।
इसी प्रकार संचालकों के योगदान पर आधारित चर्चा के अध्यक्ष श्री के. सुब्रह्मणया भट्ट तथा वक्ता श्री ज्ञानबहादुर थापा थे। शिक्षाविद् विमर्श विषय पर परिचर्चा के अध्यक्ष डॉ. वामन गोगटे तथा वक्ता श्री भागीरथी वैद्य थे।