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किस्सा-ए-पंचकोशी ऊंडासा से ग्राउंड रिपोर्टिंग सही मायनों में "सन्यासी" होते हैं पंचकोशी के यात्री



छोटी-छोटी चीजों में खुशी ढूंढने की कला सीखना है, तो इनसे सीखें 
उज्जैन |  जीवन में सुख और दुख बारी-बारी से आते जाते रहते हैं, और सुख या खुशी ऐसी चीज नहीं है, जिसे हम कोई मोल चुकाकर प्राप्त कर सकें। पैसों से यदि इसे खरीदा जा सकता, तो शायद हर धनवान व्यक्ति अंदर से खुश होता। पैसों से तो सिर्फ सुविधाएं खरीदी जा सकती हैं, लेकिन उन सुविधाओं के बीच में रहकर भी यह कतई जरूरी नहीं है कि कोई खुश हो, इसे तो अंदर से महसूस किया जाता है। 
   एक योगी या सन्यासी वह होता है जो सुख-दुख, सर्दी-गर्मी व बारिश, हर मौसम, हर हालात में सदैव समान रूप से आचरण करता है। वह ना तो किसी से कोई उम्मीद करता है, ना ही किसी तरह की शिकायत। वह कहीं भी रहे, जिस स्थिति में रहे, उसे ऊपर वाले की मर्जी समझ कर उसमें ही खुशी तलाश लेता है। सही मायनों में पंचकोशी के यात्री सन्यासी की तरह ही तो होते हैं।
   उनके अनुभव जानने के लिए शनिवार को ऊंडासा पड़ाव स्थल पर जाना हुआ। वहां जगह जगह कुल्फी, चाट, नमकीन व शरबत के ठेले,  रंग बिरंगे कपड़ों और साफों की दुकानें,  उन पर मोलभाव करते लोग, दाल-बाटी बनाने के लिए लगे कंडों के ढेर, कहीं खाना बनाते तो कहीं खाना खाते,  कहीं स्नान करते तो कहीं आराम करते, कहीं भगवान के मंदिर में दर्शन करने के लिए जाते तो कहीं पूरे उल्लास के साथ भजन गाते हुए पंचकोशी यात्रीयों का मजमा लगा हुआ था, मानो भीषण गर्मी, आग उगलते सूरज और लगातार बढ़ने की चेष्टा करते तापमान का उन पर कोई असर ही नहीं हो रहा हो।
   कई चेहरे ऐसे भी थे जिन पर उम्र के कारण झुर्रियां तो पड़ गई थी पर कहीं कोई शिकन नहीं थी।ऐशो-आराम और सुविधाओं के बीच रहने वाले हम शहर के लोगों को यदि छोटी-छोटी चीजों में खुशी ढूंढने की कला सीखनी हो तो यह हमें पंचकोशी यात्रियों से सीखनी चाहिए। ऊंडासा के पड़ाव स्थल पर सुबह से ही यह नजारा देखने को मिला। लोगों ने स्नान कर रत्नेश्वर महादेव के दर्शन किए, कुछ देर आराम किया और निकल पड़े अगली मंजिल की ओर।
   कुछ लोग ऐसे भी थे जो हाल ही में पिछले पड़ाव से यहां आए थे। पंचकोशी यात्रियों का इस तरह एक पड़ाव पर आना, कुछ देर रहना और फिर अगले पड़ाव पर चले जाना, संसार में आए जीव की क्षणभंगुरता का संदेश देती है। ये यात्री हमें यह सिखाते हैं कि संसार में कुछ भी स्थाई नहीं रहता है। आज जहां मेला दिखाई दे रहा है, कुछ पल बाद वह जगह वीरान हो जाती है। इसीलिए सारे तनाव और चिंताओं को भूलकर हमें जीवन में सच्चे सुख को प्राप्त करना चाहिए। और सच्चा सुख है क्या ? हम जितना अपने आप को  प्रकृति के करीब रखेंगे  उतनी ही आत्मिक शांति  हमें प्राप्त होगी।
   उन्हेल से आए भेरूलाल हों या देवास के भानगढ़-गुराडिया गांव से आईं शांताबाई और चंदाबाई, सभी के चेहरों से यही भाव झलक रहा था। कुछ महिलाएं मंदिर के पास "नाचे रे नाचे मीराबाई नाचे" भजन गा रही थीं, वहीं कुछ लोग "भगवान महाकाल की जय" और "पंचकोशी की जय" के नारे लगा रहे थे।
   हां एक बात सभी पड़ावों और उप पड़ावों पर एक जैसी थी और वह थी प्रशासन की ओर से की गई चाक चौबंद व्यवस्थायें। हमनें जितने भी लोगों से बात की, सबका कहना यही था कि प्रशासन की ओर से यात्रियों को दी जाने वाली सुविधाओं हर वर्ष और बेहतर होती जा रही हैं। ऊंडासा में भी स्वास्थ्य परीक्षण केंद्र, दवा वितरण केंद्र, एंबुलेंस, उचित मूल्य की दुकान, पीने के लिए ठंडा पेय जल, खोया-पाया केंद्र और यात्रियों के विश्राम के लिए टेंट लगाए गए थे।आष्टा से अपने परिवार के साथ आए प्रेमचंद ने कहा कि सभी व्यवस्थाएं बहुत अच्छी हैं और कहीं भी उन्हें कोई दिक्कत नहीं हुई। ग्राम लोहाना से आए पूनमचंद, जगदीश और रंजीत या इंदौर के पास के गांव रोजड़ी से आईं अमृतबाई, अनुराधाबाई, शकुंतला बाई, मुन्नीबाई और संतोष कुंवर, सब की राय यही थी। 
   जब हमने  लोगों से पूछा  कि वे पंचकोशी यात्रा क्यों करते हैं, तो कई लोगों के पास इसका कोई ठोस जवाब नहीं था, ना ही उन्हें इस यात्रा को करने के पीछे का महत्व पता था। उनका तो बस यही कहना था कि वे तो बस अपने परिवार के बुजुर्गों के पदचिन्हों पर चलते हुए, तो कुछ केवल आनंद और शांति की तलाश में दूर-दूर से इस यात्रा को करने के लिए आते हैं। इस तरह पंचकोशी यात्रा जाहिर तौर पर परिवार में बड़े बुजुर्गों की बात का मान रखने और प्रकृति से प्रेम करने का एक श्रेष्ठ उदाहरण है।

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