उज्जयिनी पंचक्रोशी की आस्थामयी यात्रा
प्राचीन काल से उज्जयिनी शैवपीठ, शाक्तपीठ तथा वैष्णव तीर्थ स्थली के रूप में जानी जाती रही है। भारत की हृदयस्थली मालवा की सांस्कृतिक राजधानी उज्जयिनी का सामाजिक, धार्मिक, भौगोलिक, आध्यात्मिक, ज्योतिष एवं सांस्कृतिक कारणों से हमेशा वैशिष्टय् बना रहा है। यहाँ महाकाल वन में अनेक शिवलिंग विराजित थे, वहीं शिवाराधन यात्राओं का सदैव विशेष महत्व रहा है। पंचक्रोशी; पंचेशानी, अष्ठतीर्थ, चारद्वार, तथा नगर की परिक्रमा इसके जीवन्त प्रतिमान के रूप में वर्तमान तक सहज ही देखे जा सकते हैं। पंचक्रोशी यात्रा में आस्था का जनसैलाब इसकी विशेषता हैं।
पद्मपुराण के अनुसार माघ मास में प्रयागराज तथा कार्तिक में पुष्पक व औंकारेश्वर तीर्थ और अवन्ती में यदि वैशाख मास में निवास करके यात्रा की जाये, तो एक युग के संचित पापों का नाश हो जाता है।
उज्जैन में हर वर्ष 118 किलोमीटर की यह पंचक्रोशी (पंचेशानी) यात्रा प्रतिवर्ष वैशाख मास की कृष्णपक्ष की दशमी से शुरू होकर अमावस्या को समाप्त होती है। नगर के मध्य भूतभावन श्रीमहाकालेश्वर का मंदिर स्थित है, उसी के समीप पटनी बाजार स्थित नागचन्द्रेश्वर मंदिर से एक-एक योजन (चार कोस) पर नगर के चारों दिशा में चार शिवमंदिर, जिन्हें नगर की रक्षा के द्वारपाल माना जाता है। इन चारों मंदिरों नागचन्द्रेश्वर, कायावरोहणेश्वर, बिल्वेश्वर और दुर्दरेश्वर के दर्शन मनुष्य के जीवन के पुरूषार्थ चतुष्ट्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के प्रतीक माने गये हैं। वैशाख मास की तपती धूप में इनकी यह यात्रा आन्तरिक उल्लास से ओतप्रोत रहती है, जिसमें ये पदयात्री एक आध्यात्मिक धार्मिक व सांस्कृतिक शांति की अनुभूति के साथ निरन्तर परिक्रमा कर मंज़िल की ओर बढ़ते रहते हैं। इस यात्रा में यात्री स्वयं अपने सिर पर अपना सामान रखकर चलते हैं। जीवन से जुड़ी ये यात्राएं, परिक्रमा व उपासनाएं वैयक्तिकता से जुड़ी श्रद्धा, आस्था व विश्वास का प्रतीक है, वहीं यात्राएं समूह में बंधुता का सुख भी देती हैं। यह धार्मिक यात्रा मोक्षदायिनी पुण्यसलिला शिप्रा में स्नान के पश्चात मंदिरों के दर्शन करने के पश्चात् नगर के पटनी बाजार स्थित नागचन्द्रेश्वर मंदिर से दर्शन करके घोड़े के प्रतीक स्वरूप को चढ़ा कर बल प्राप्त कर के शुरू होती है, वहीं शिप्रा स्नान करने के बाद नाग देवता के दर्शन करने के बाद प्राप्त बल को पुनः लौटाने के साथ समाप्त होती है। पंचक्रोशी यात्रा नगर की एक परिक्रमा है। जिसमें धार्मिक श्रृद्धालुजन बड़ी आस्था से नगर के चारों ओर स्थित प्राचीन शिव मन्दिरों के दर्शन, पूजन व अर्चन का पुण्य लाभ उठाते हैं। नगर के मध्य भूतभावन महाकालेश्वर का मंदिर स्थित है। वहीं इसके चारों ओर एक-एक योजन चार कोस पर शिवमंदिर स्थित है।
स्कंद पुराण में इन चारों दिशाओं में स्थित मंन्दिरों की कथा व महात्म्य भी वर्णित है। चतुर्दिक स्थित चारों द्वारपाल मनुष्य के जीवन के पुरूषार्थ, धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के प्रतीक माने गये हैं। इस अर्थ में यह शैव यात्रा भी मानी गई है। नागचन्द्रेश्वर के मंदिर से शुरू यह यात्रा कायावरोहणेश्वर, बिल्वेश्वर और दुर्दरेश्वर के मंदिरों के दर्शन करती हुई, पुनः नाग देवता के दर्शन कर समाप्त होती है। इस यात्रा में शिवलिंगों का पूजन, आराधना, उपवास, दान और दर्शन आदि को प्रधानता दी जाती है, साथ ही यह भी मान्यता है कि इस परिक्रमा से जहां इच्छित पुण्यफल एवं अभीष्ट की प्राप्ति होती है, साथ ही पुराने जन्मों के पापों का नाश होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है। उज्जैन के महाकाल वन का वर्णन प्राचीन ग्रन्थों में वर्णित है, जिसमें सर्वाधिक शिवालय रहे हैं। इसीलिये यहां पर 84 महादेव मनुष्य की 84 लाख योनियों के बंधनों से मुक्ति के प्रदाता माने गये हैं। स्कंध पुराण के पंचम खण्ड में अवन्तिका खण्ड है, इसमें इन 84 महादेवों की महिमा का वर्णन है। वहीं चारों दिशा स्थित चार द्वारपालों का वर्णन आता है।
नागचन्द्रेश्वर महादेव के दर्शन कर संध्याकाल से शुरू यह यात्रा द्वारकाधीश गोपाल मंदिर के दर्शन करती हुई हीरा मील स्थिति नगर निगम द्वारा बनाये गये पंचक्रोशी प्रवेश द्वार से शुरू होती हुई पील्याखाल, वैश्य टेकरी, ऊंडासा व पिंगलेश्वर पहुंचती है। यह रास्ता करीब 12 किलोमीटर लम्बा है। रात्रि विश्राम के बाद प्रथम प्रहर से पुनः यह यात्रा आगे बढ़ती हुई ऊंडासा, करोदिया, दतरावदा, लालपुर, मालनवासा, त्रिवेणी, पिपल्याराघो, छाबन, कोकल्याखेड़ी से करोहन स्थिति कायावरूणेश्वर पहुंचती है। इसके बाद जस्तारखेड़ी तालाब के किनारे से होती हुई गोंदिया, रानाबड़, तालोद, बामोरा, नलवा, खरेट, बिड़वाई से होती हुई अम्बोदिया स्थित बिल्वेश्वर में रूककर 20 कि.मी. की यात्रा पूर्ण कर रात्रि के द्वितीय पहर से ही नाईखेड़ी, बड़ोदिया, सोडंग से होते हुए कालियादेह महल में यात्रा का उपपड़ाव रहता है। वहां से बोरमुडला होती हुई यह यात्रा दुर्देरेश्वर महादेव पहुंचती है। इसके बाद जेथल, ढाबला से होती हुई उंडासा, साहेबखेड़ी तालाब से होती हुई कर्कराज मंदिर रेतीघाट पर आकर रूकती है। अष्टतीर्थ यात्री वैशाखकृष्ण अमावस्या को मंगलनाथ यात्रा के बाद शिप्रा स्नान तथा नागदेवता के दर्शन कर 118 कि.मी. की इस यात्रा समापन करते हैं। बारह वर्षों में होने वाले अमृत महाप्रसंग सिंहस्थ में इस यात्रा में लाखों श्रृद्धालु यात्री हिस्सेदारी करते हैं, तब ऐसा लगता है कि एक लघु भारत उज्जयिनी की धरती पर उतर आया हो। रास्तेभर ईश्वर नाम जाप, कीर्तन, भजन और सत्संग का जहां आनंद बिखरा रहता है। वहीं जगह-जगह तीर्थयात्रियों के उत्साह को देखना एक विशिष्ट अनुभूति को जन्म देता है। वहीं पंचक्रोशी यात्रा में पड़ने वाले ग्रामवासियों का इन यात्रियों का भाव भीना आतिथ्य भारतीय संस्कृति की अतिथि परंपरा की उत्कृष्ट संस्कृति का परिचायक है, वहीं अनेक संस्थाएं, समाजसेवी एवं दानदाता इन यात्रियों की अनेक प्रकार से सेवा करके पुण्य लाभ प्राप्त करते हैं।
वैशाख मास में जब भास्कर देवता अपनी प्रचण्ड रश्मियों से ताप उत्पन्न कर रहे होते हैं, वहीं चारों तरफ लू के थपेड़े, कांटों व धूल भरे रास्तों पगडंडियों एवं डामरीकृत सड़कों पर अपने वज़न की पोटलियों को सिर पर रखकर यात्रा करना वृद्धों, प्रौढ़ों, नौजववानों एवं छोटे-छोटे बच्चों के लिये बोझ नहीं आनन्दमयी रहता है। इस यात्रा में धार्मिकता, अध्यात्म व सांस्कृतिक मूल्यों का आपसी सम्मिलित स्वरूप के उन्मेष को देखना मन में अनोखी अनुभूति की सृष्टि करता है।
अंततोगत्वा पंचक्रोशी (पंचेशानी) यह यात्रा एक ऐसी अन्तःयात्रा की ओर श्रद्धालु को ले जाती है जहां उसे शारीरिक कष्टों में भी आनन्द व आध्यात्म की अनुभूति होती है। इस यात्रा की एक विलक्षण विशेषता यह भी है कि इसमें अनेक श्रृद्धालु यात्री एक बार नहीं बल्कि कई बार सम्मिलित होते हैं। यह उनकी आस्था, धर्म व विश्वास का ही फल है। वहीं सैंकड़ों व्यक्ति इन यात्रियों की सेवा करके सुख व आनन्द की अनुभूति से आनन्दित होते हैं। इस यात्रा का सफल बनाने राज्य शासन, प्रशासन के कई विभाग, समाजसेवी संस्थाएं, भारत स्काउट, उज्जैन सेवा समिति सहित अनेक संस्थाएं प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष सहयोगकर्ता योगदान देते हैं। यात्रा के मार्ग पर श्रद्धालुओं की सुविधा को दृष्टिगत रखते हुये शासन एवं प्रशासन द्वारा पड़ाव स्थलों पर ठहरने, मनोरंजन एवं अन्य सुविधा व्यवस्थाये भी की जाती हैं। इस यात्रा में समरसता का वातावरण देखने को मिलता है। इस अलौकिक यात्रा की अनुभूति को बाहर से नहीं समझा जा सकता, बल्कि इसका हिस्सा बन कर ही महसूस किया जा सकता है।
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यात्रा मार्ग के पड़ाव दूरी कि.मी में
1. नागचन्द्रेश्वर से पिंगलेश्वर पड़ाव 12
2. पिंगलेश्वर से कायावरोहणेश्वर पड़ाव 23
3. कायावरोहणेश्वर से नलवा उप-पड़ाव 23
4. नलवा उप-पड़ाव से बिल्वेश्वर पड़ाव (अंबोदिया) 7
5. अंबोदिया पड़ाव से कालियादेह उप-पड़ाव 18
6. कालियादेह उप-पड़ाव से दुर्दरेश्वर पड़ाव (जैथल) 7
7. दुर्दरेश्वर पड़ाव से पिंगलेश्वर होते हुए उंडासा उप-पड़ाव 16
8. उंडासा उप-पड़ाव से शिप्रा घाट, रेती मैदान 12