लोकसभा चुनाव 2024: पहले चरण के मतदान से अंतिम नतीजों के आकलन का ये सियासी उतावलापन अजय बोकिल(वरिष्ठ पत्रकार )
लोकसभा चुनाव 2024: पहले चरण के मतदान से अंतिम नतीजों के आकलन का ये सियासी उतावलापन
अजय बोकिल(वरिष्ठ पत्रकार )
सार
क्या चुनाव में केवल अपनी मनोवैज्ञानिक बढ़त दिखाने का दुस्साहस है अथवा मतदाता के राजनीतिक रूझान और मनोविज्ञान को पहले ही भांप लेने की जादूगरी है? या फिर चुनाव के बाजार में अपने ब्रांड का भाव ऊंचा कायम रखने का टोटका है?
विस्तार
आजकल चुनाव में मतदान के आरंभिक चरण के आधार पर ही संभावित अंतिम नतीजों की अटकलें लगाने का काम जोरों पर है। इस बार भी लोकसभा चुनाव के पहले चरण में घटे मतदान की बिना पर दो प्रमुख राजनीतिक गठबंधनों ने अपनी- अपनी जीत के दावे ठोक दिए हैं। गोया कि मतदाता उनकी हार-जीत पहले ही चरण में सुनिश्चित कर दी हो। जब चुनाव के 6 चरण बाकी हों, तब ऐसे दावों का क्या मतलब है?
क्या चुनाव में केवल अपनी मनोवैज्ञानिक बढ़त दिखाने का दुस्साहस है अथवा मतदाता के राजनीतिक रूझान और मनोविज्ञान को पहले ही भांप लेने की जादूगरी है? या फिर चुनाव के बाजार में अपने ब्रांड का भाव ऊंचा कायम रखने का टोटका है? इन सवालों को बल हाल में सोशल मीडिया पर आई दो पोस्ट से मिला, जिनमें से पहले में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चुनाव के पहले चरण में पिछले लोकसभा चुनाव के प्रथम चरण की तुलना में कम मतदान के आंकड़े सामने आने के बावजूद कहा कि ‘पहले चरण में एनडीए के पक्ष में रिकाॅर्ड मतदान के लिए मतदाताओं का धन्यवाद’ तो दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने एक्स पर पोस्ट डाली कि (चुनाव में) भाजपा का पहले दिन का शो फ्लाॅप। मतदाताओं की नई राजनीतिक चेतना को नमन।
दरअसल, पहली पोस्ट का आशय साफ था कि देश में मोदी लहर पहले की तरह उद्दाम गति से बह रही है, कोई इसे न समझना चाहे तो न समझे। दूसरी पोस्ट का मंतव्य था कि जो वोटिंग हुआ है, वह मुख्यत: उन वोटरों द्वारा किया गया है, जो भाजपा और एनडीए के विरोधी हैं यानी कि इंडिया गठबंधन को सत्ता में आते देखना चाहते हैं। यानी कि अखिलेश ने मान लिया है कि चुनाव के बाकी चरणों में भी मतदान का वही ट्रेंड रहने वाला है, जो पहले चरण में दिखा। दूसरे शब्दों में कहें तो मोदी राज जा रहा है, नेताविहीन इंडिया गठबंधन सामूहिक राज आ रहा है। दूसरी तरफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पहले ही से मान बैठे हैं कि तीसरी बार पीएम पद की शपथ तो महज संवैधानिक औपचारिकता है, जनता उनके स्वस्तिवाचन के लिए उधार बैठी है।
लोकतांत्रिक सत्य और यथार्थ
चुनाव का लोकतांत्रिक सच इन दोनो के भीतर कहीं हैं। यह सही है कि 2019 के मुकाबले इस बार पहले चरण का मतदान तुलनात्मक रूप से कम दर्ज किया गया है। पिछले लोस चुनाव भी सात चरणों में हुए थे, तब पहले चरण में 20 राज्यों की 91 सीटों पर वोट डाले गए थे, जिसका प्रतिशत 66 था। इस बार 21 राज्यों व केन्द्र शासित प्रदेशों की 102 सीटों पर वोट पड़े, जिसका प्रतिशत 65.5 फीसदी था। यानी 0.5 फीसदी का फर्क। हालांकि जिन सीटों पर वोट पड़े, वो वही नहीं थीं, जो 2019 में थीं। इसलिए मतदान के प्रतिशत की सीटवार तुलना उचित नहीं होगी।
बहरहाल, मतदान प्रतिशत में मामूली कमी से अंतिम नतीजों पर बहुत फर्क पड़ेगा, ऐसा नहीं लगता। यही ट्रेंड आगे भी दिखे, यह जरूरी नहीं है। फिर भी पहले चरण को मंगलाचरण मानकर अर्चना का फलित तलाशने वाले नतीजों की एडवांस घोषणा क्यों कर रहे हैं? सत्ता के घोड़े की सवारी को लेकर इतनी उतावली क्यों है? क्या यह महज राजनीतिक सनसनी फैलाने का शिगूफा है अथवा मतदाता के मानस को प्रभावित करने का सियासी टोटका है? इसे हमे समझना पड़ेगा।
दरअसल मतदान के पहले चरण के झटके से दोनो प्रमुख राजनीतिक खेमे हिले हुए क्यों हैं, इसे बारीकी से समझने की जरूरत है। मतदान खासतौर पर उन राज्यों में घटा है, जहां भाजपा और एनडीए ज्यादा से ज्यादा और बड़ी संख्या में सीटें जीतने का ख्वाब पाले हुए हैं। जहां एनडीए और इंडिया गठबंधन की सेनाएं सीधे आमने सामने हैं, उस बिहार में महज 47.49 फीसदी वोट पड़े हैं। मतदान का यह आंकड़ा 2019 की तुलना में 10 फीसदी कम है।
पिछले चुनाव में जदयू-भाजपा व अन्य कुछ छोटी पार्टियों के गठबंधन ने बिहार में स्वीप करते हुए 40 में से 39 सीटें जीत ली थीं, केवल 1 सीट कांग्रेस के खाते में गई थी। अब मतदान में भारी कमी का नुकसान किसे होगा, इसको लेकर राजनीतिक अटकलबाजी जारी है।
इधर, कुछ जानकारों का मानना है कि जदयू का एनडीए में लौटना खास मुफीद साबित नहीं हो रहा है, क्योंकि नीतीश की राजनीतिक साख पर लगे बट्टे की वाशिंग उस तरह से नहीं हो पाई, जो अपेक्षित थी। मोदी करंट है, पर 440 वोल्ट की विद्युत धारा में नहीं बदल पा रहा है। तो क्या राजद और इंडिया गठबंधन का जाति दांव बिहार में ज्यादा कारगर हो रहा है? संभावनाएं दोनो हैं। अभी दावे से यह कहना कठिन है कि किस खेमे का समर्थक मतदाता वोट डालने नहीं निकला या उसे लगा ही नहीं कि उसे वोट देने से कहीं कुछ बदलने वाला है। हालांकि बिहारियों का मतदान के प्रति उत्साह यूं ही फीका रहा तो एनडीए के चार सौ पार के नारे को पहला झटका बिहार से लगेगा।
अब मोदीजी ने पहले चरण में एनडीए के पक्ष में बंपर वोटिंग का जो दावा सोशल मीडिया पर किया था, उसका जमीनी आधार कितना है, यह चुनाव नतीजों से ही पता चलेगा।
क्या है भाजपा राज्यों का हाल?
दूसरे प्रमुख भाजपा शासित राज्य हैं, मध्यप्रदेश, राजस्थान और यूपी। मध्यप्रदेश में 2019 के लोकसभा चुनाव में कुल 71.20 फीसदी वोट पड़े थे, जबकि इसी राज्य में पहले चरण के मतदान का प्रतिशत 67.75 रहा है। ऐसे में सवाल उठ रहा है कि मप्र में कहीं भाजपा का मिशन 29 फेल तो नहीं हो रहा? या फिर राज्य में बची-खुची कांग्रेस का भी भट्टा बैठने वाला है?
पिछले लोस चुनाव में भाजपा ने मप्र की 29 में से 28 सीटें जीत ली थीं। राजस्थान में तो पिछले चुनाव में मोदी लहर एकतरफा चली थी और भाजपा सभी 25 सीटों पर काबिज हो गई थी, तब वोटिंग 66.34 फीसदी हुआ था, जबकि इस बार पहले चरण में मात्र 50.95 वोट ही पड़े हैं। इसी तरह यूपी में पिछले लोस चुनाव में 58.61 फीसदी मतदान हुआ था, जबकि इस बार पहले चरण में कुछ कम 57.61 यानी एक फीसदी कम था।
असल सवाल यह है कि लोग इस बार ज्यादा वोट करने क्यों नहीं आ रहे हैं? इस सवाल एक जवाब मौसम है। भयावह गर्मी के चलते लोग मतदान केन्द्रों तक जाना टाल रहे हैं। लेकिन इस देश में अप्रैल-मई की चिलचिलाती गर्मी में चुनाव तो 2004 से हो रहे हैं और पिछले दो लोकसभा चुनाव में मतदान का कुल प्रतिशत और भाजपा का शेयर लगातार बढ़ ही रहा है। लेकिन क्या इस बार वो उत्साह उतार पर है अथवा जो वोटर भाजपा के खिलाफ वोट देना चाहता है, वो सही विकल्प के अभाव में घर से नहीं निकलना ही बेहतर समझ रहा है? वैसे भी लोकतांत्रिक पर्व का बदलती ऋतुओं से खास लेना-देना नहीं होता। मतदाता की पहली चिंता यह होती है कि उसकी निजी जिंदगी में बहार लाने और देश में तरक्की और सौहार्द का गुलशन कौन खिला रख सकता है।
तो क्या इस चुनाव में कहीं कोई अंडर करंट नहीं है, जो मतदाता को वोट डालने पर विवश करे या फिर कोई अंतर्धारा बह रही है, जो हमे ऊपर से नजर नहीं आ रही? जो मतदाता वोट डालने जा रहे हैं, वो कर्तव्य भाव से मजबूर हैं, यथा स्थिति के वाहक हैं या फिर वर्तमान में ही आश्वस्ति के स्वर्णिम भाव से गदगद हैं?
बेशक पहले चरण में मतदात प्रतिशत के उतार चढ़ाव से पूरे चुनाव नतीजों से जोड़कर देखना जल्दबाजी होगी। लगातार तीन चार चरणों में भी मतदान का यही पैटर्न रहता है तो किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है। कुछ राज्यों में तो यह चुनाव नीरसता के साए में लड़ा जा रहा है, केवल गैर भाजपा शासित राज्यों में लड़ाई कांटे की दिखती है, जहां भाजपा अपना अश्वमेध दौड़ाना चाहती है तो बाकी विपक्षी दल अपने आखिरी किलों को बचाने की जी जान से कोशिश करते दिखते हैं।
जहां तक भाजपा और प्रकारांतर से एनडीए की बात है तो लगातार तीसरी बार एंटी इनकम्बेंसी को मात देकर सत्ता में आना कोई सामान्य बात नहीं है। यह असंतोषों के पहाड़ लांघकर एवरेस्ट पर विजय पताका लहराने जैसा है। पहले चरण के बाद संभावित नतीजों के आकलन की जल्दबाजी में सकारात्मक पक्ष यही है कि दोनो खेमों में उम्मीदों के अलाव जल रहे हैं, अंतिम चरण तक इनमे से कितने राख में और कितने हवन में बदलेंगे, यह देखने की बात है।
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