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सरकार पैसा तो देती है पर हालात क्यों नहीं सुधरते?.. डॉ. अरुणा शर्मा प्रैक्टिशनर डेवलपमेंट इकोनॉमिस्ट और इस्पात मंत्रालय की पूर्व सचिव


 

मुद्दा • योजनाओं के लाभ जनता तक नहीं पहुंच पा रहे हैं, या खुद उन्हें अपने अधिकारों के बारे में पता नहीं है ...
सरकार पैसा तो देती है पर हालात क्यों नहीं सुधरते?..
डॉ. अरुणा शर्मा प्रैक्टिशनर डेवलपमेंट इकोनॉमिस्ट और इस्पात मंत्रालय की पूर्व सचिव arunasharma1908@gmail.com
जब भी सरकार गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या बताती है तो उस पर बहुत बहस होती है। नई खबर नीति आयोग से आई थी, जिसने गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या के घटकर 15प्रतिशत रह जाने की बात बताई है। अब कुल 24.8 करोड़ लोग ही बीपीएल श्रेणी में हैं। सार्वजनिक डोमेन में मौजूद अन्य आंकड़ों के मुताबिक भारत में लगभग 60प्रतिशत लोग प्रतिदिन 3.10 डॉलर (258.41 रुपए) से कम पर जीवन यापन करते हैं। यह विश्व बैंक द्वारा निर्धारित औसत गरीबी रेखा है। वहीं 21प्रतिशत , या 25 करोड़ से अधिक लोग, प्रतिदिन 2 डॉलर (166.71 रुपए) से भी कम पर जीवित रहते हैं। लेकिन इस लेख का उद्देश्य इस पर बहस करना नहीं है कि कितने लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं, बल्कि यह चर्चा करना है कि गरीबी की समस्या का अंत कैसे हो सकता है। क्या यह धन की कमी, योजनाओं और पहुंच - तंत्र के अभाव का मुद्दा है या मानसिकता से जुड़ा मामला है?
इंदिरा गांधी ने 'गरीबी हटाओ' का नारा दिया था। आज मनरेगा के तहत 100 दिनों के वेतनशुदा रोजगार की गारंटी दी जा रही है या सब्सिडी वाले खाद्यान्न की पीडीएस प्रणाली अब कथित रूप से 80 करोड़ व्यक्तियों को 5 किलो मुफ्त खाद्यान्न दे रही है। इन सभी योजनाओं का लक्ष्य गरीबों की मदद करना है। इससे पूर्व अंतिम व्यक्ति तक पहुंचने के लिए 'अंत्योदय' कार्यक्रम भी चलाए गए थे। गरीबी रेखा से नीचे मौजूद व्यक्तियों की संख्या पर बहस हो सकती है, लेकिन जब आंकड़ों के जरिए बताया जाता है कि आज केवल 15प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं तो यह रोजगार दर, पोषण स्तर, हंगर इंडेक्स और मानव विकास के अन्य सूचकांकों में भी झलकना चाहिए। सीएमआईई के उपभोक्ता पिरामिड घरेलू सर्वेक्षण के अनुसार, भारत में बेरोजगारी दर जनवरी 2024 में 6.8 प्रतिशत से बढ़कर फरवरी 2024 में 8 प्रतिशत हो गई। जहां शहरी भारत में बेरोजगारी दर कम हुई, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में इसमें काफी वृद्धि हुई है। 2023 के मजबूत दौर के बाद 2024 में एफएमसीजी सूचकांक में गिरावट के लिए कई फैक्टर्स को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। बैंकों को अधिक एनपीए होने और शुद्ध घरेलू वित्तीय बचत के साथ ही पारिवारिक बचतों में गिरावट का डर है, जो पिछले वर्षों के 7.1प्रतिशत की तुलना में 2023 में 5.1प्रतिशत की तेज गिरावट दर्शाती है। वजह है कम आमदनी
और अधिक ईएमआई । कारणों में उपभोक्ता खर्च को प्रभावित करने वाले व्यापक आर्थिक बदलाव से लेकर और रोजमर्रा के खर्चों को प्रभावित करने वाली महंगाई तक शामिल हैं।
भारत में गरीबी निश्चित रूप से वित्त की उपलब्धता का मामला नहीं है। 10वीं योजना के बाद से प्रत्येक जिले को लगभग 800 करोड़ का फंड मिल ही रहा था, जो 15 लाख की आबादी वाले जिले के लिए पिछले कुछ वर्षों में बढ़कर 2000 करोड़ हो गया है। यह फंड कर्मचारियों के वेतन पर होने वाले व्यय को कवर नहीं करता। यह ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे, कृषि और संबंधित बागवानी, मछली पालन, फूलों की खेती, सामाजिक सुरक्षा उपायों, शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, स्वच्छता, जीवन की गुणवत्ता में सुधार आदि तमाम पहलुओं को कवर करने के लिए है। इनमें से प्रत्येक के लिए एक योजना है और कई ओवरलैपिंग योजनाएं भी हो सकती हैं। इस तरह कंवर्जेस का कॉन्सेप्ट 10वीं योजना में पेश किया गया था और 11वीं योजना के बाद से वह आज तक एक प्रणाली बना हुआ है।
डीबीटी, फील्ड वर्कर्स, डिजिटल डेटाबेस के माध्यम से पहुंच का तंत्र भी स्थापित किया गया है। योजनाएं तो हैं, लेकिन समस्या यह है कि उनके लाभ जनता तक नहीं पहुंच पा रहे हैं, या खुद नागरिकों को अपने अधिकारों के बारे में
पता नहीं है, जिससे वो उनकी मांग नहीं करते। वे खराब बुनियादी ढांचे, लो-मेंटेनेंस और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा - स्वास्थ्य के अभाव से ही संतुष्ट लगते हैं।
1500 आबादी वाली प्रत्येक पंचायत को बुनियादी ढांचे के लिए हर साल एक करोड़ रुपए मिलते हैं। शहरी क्षेत्रों को वार्डवार राशि मिलती है। समय आ गया है कि न केवल इनका उचित वितरण सुनिश्चित किया जाए, बल्कि विकेंद्रीकृत तरीके से योजना बनाने के लिए फंड की कोई सीमा न हो । स्थानीय स्वास्थ्य देखभाल सुनिश्चित करने के लिए जिलों और राज्यों को सूचीबद्ध परिणामों के साथ कुछ अनटाइड - फंड रखने की अनुमति देना भी जरूरी है। डिजिटल होने के बावजूद व्यवस्थित जानकारी उपलब्ध नहीं है। जरूरत इस बात की है कि प्रत्येक 25 करोड़ परिवारों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर नजर रखी जाए और उन्हें गुणवत्तापूर्ण बुनियादी ढांचा सुनिश्चित किया जाए। इसी का नाम गवर्नेस है। मुख्य बात है सरकार द्वारा गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल प्रदान करना और फिर बेहतर रोजगार के लिए उद्योगों के अनुरूप - विशेषकर एमएसएमई- कौशल प्रदान करना। केंद्रीकृत दृष्टिकोण प्रभावी सिद्ध हुआ है। नागरिक विकेंद्रीकृत रवैए व सामान्य घरेलू डेटा प्रबंधन - निगरानी की मांग करें।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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