ग्राउंड रिपोर्ट: दमोह में दो संबंधियों में सीधा मुकाबला, दोनों हार चुके विधानसभा चुनाव * दिनेश निगम ‘त्यागी’ (वरिष्ठ पत्रकार)
ग्राउंड रिपोर्ट: दमोह में दो संबंधियों में सीधा मुकाबला, दोनों हार चुके विधानसभा चुनाव
* दिनेश निगम ‘त्यागी’ (वरिष्ठ पत्रकार)
बुंदेलखंड अंचल की दमोह लोकसभा सीट का मुकाबला इस मायने में रोचक है कि भाजपा और कांग्रेस से दो खास मित्र और संबंधी आमने- सामने हैं। ये हैं भाजपा के राहुल लोधी और कांग्रेस के तरवर लोधी। 2019 में दोनों कांग्रेस के टिकट पर विधानसभा चुनाव जीत कर विधायक बने थे। डेढ़ साल बाद ही राहुल दल बदल कर भाजपा में चले गए, लेकिन उप चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा। 2023 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने उन्हें टिकट नहीं दिया। अब वे पार्टी की ओर से लोकसभा के प्रत्याशी हैं। तरवर भी 2023 का विधानसभा चुनाव हार गए थे और अब लोकसभा चुनाव लड़ रहे हैं। वे राहुल की जीत की राह में अड़चन हैं। दोनों संबंधी हैं और अच्छे पुराने मित्र भी। इसलिए भी सभी की नजर इस चुनाव पर है।
अब भी बजता है जातिवादी राजनीित का डंका
- भाजपा का नारा है ‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास’, जबकि कांग्रेस कहती है ‘कांग्रेस का हाथ, सबके साथ’, लेकिन दमोह लोकसभा क्षेत्र में दोनों दलों के प्रत्यािशयों पर दृष्टि डालने से पता चलता है कि यह महज नारे हैं, वास्तविकता से इनका कोई नाता नहीं। दमोह क्षेत्र में सबसे ज्यादा मतदाता लोधी समाज के हैं, इसलिए दोनों दलों ने अपने प्रत्याशी इसी समाज से उतारे हैं। भाजपा से राहुल लोधी और कांग्रेस से तरवर लोधी। साफ है कि अब भी चुनावों मे ंजातिवादी राजनीति का ही डंका बजता है और हर दल इस दलदल में धंसा है। 2004 से 2019 तक इस सीट से भाजपा के लोधी प्रत्याशी की चुनाव जीतते आ रहे हैं। 2004 में चंद्रभान सिंह लोधी, 2009 में शिवराज सिंह लोधी, 2014 और 2019 में प्रहलाद पटेल चुनाव जीते, सभी इसी समाज से हैं। इस बार फिर भाजपा ने लोधी प्रत्याशी दिया है तो कांग्रेस ने भी लोधी मैदान में उतार दिया है।
भाजपा-कांग्रेस की ताकत, कमजोरी
- लोकसभा चुनाव में असर की दृष्टि से भाजपा और कांग्रेस के प्रत्याशी इस नाते बराबरी पर हैं कि दोनों विधानसभा का एक-एक चुनाव हारने के बाद लोकसभा चुनाव लड़ रहे हैं। भाजपा प्रत्याशी राहुल कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आए हैं, इसलिए उनसे कांग्रेसी चिढ़े हैं ही, भाजपा के अंदर भी उनका विरोध है। पर दमोह क्षेत्र की 8 में से 7 विधानसभा सीटों पर भाजपा काबिज है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पार्टी का चेहरा हैं, इसका उन्हें फायदा मिलता दिख रहा है। दूसरी तरफ कांग्रेस के तरवर लोधी का कोई व्यक्तिगत विरोध नहीं है। दो विधानसभा क्षेत्रों बंडा और मलेहरा में उनका खास असर है। लेकिन कांग्रेस की बुरी हालत और विधानसभाओं में कम ताकत का उन्हें नुकसान उठाना पड़ सकता है।
कम नहीं हुआ राहुल का व्यक्तिगत विरोध
- भाजपा के राहुल लोधी के व्यक्तिगत विराेध का अंदाजा इसी से लगता है कि वे दमोह से विधानसभा का उप चुनाव लड़े तो कांग्रेस के अजय टंडन से 17 हजार से भी ज्यादा मतों के अंतर से हार गए । इसके बाद इसी सीट से विधानसभा का चुनाव जयंत मलैया लड़े और उन्होंने कांग्रेस के अजय टंडन को ही 51 हजार से ज्यादा वोटों के अंतर से हरा दिया। राहुल को लेकर यह व्यक्ितगत विरोध अब तक समाप्त नहीं हुआ लेकिन दमोह लोकसभा क्षेत्र भाजपा के मिजाज वाला है, इसका लाभ उन्हें मिल सकता है।
भाजपा राम लहर, कांग्रेस गारंटियों के सहारे
- दूसरे लोकसभा क्षेत्रों की तरह दमोह में भी राष्ट्रीय और प्रादेशिक मुद्दों का ज्यादा असर है। भाजपा राम लहर के सहारे है। कश्मीर से धारा 370 हटाने, तीन तलाक और हिंदू- मुस्लिम राजनीति का भी पार्टी को सहारा है। केंद्र एवं राज्य सरकार द्वारा किए गए कार्यों और योजनाओं का प्रचार लोगों के बीच किया जा रहा है। दूसरी तरफ कांग्रेस राहुल गांधी की न्याय यात्रा के साथ पार्टी द्वारा घोषित गारंटियों के सहारे मैदान में है। कांग्रेस ने बुंदेलखंड की खजुराहो सीट सपा को समझौते में दी है। इसकी वजह से काफी तादाद में यादव मतदाता कांग्रेस की ओर जा सकता है। हालांकि मप्र में अखिलेश यादव से बड़ा यादव चेहरा स्वयं मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव हैं। चुनाव में जातिवादी राजनीति बड़ा मुद्दा है। देखना होगा कि लोधी समाज का वोट किसके पास जाता है। यादव और अजा वर्ग सहित अन्य समाज किस ओर रुख करते हैं।
विधानसभा की 8 में से 7 सीटों पर भाजपा काबिज
- विधानसभा सीटों के लिहाज से ताकत में भाजपा बहुत भारी दिखती है। लोकसभा क्षेत्र की आठ विधानसभा सीटों में से 7 पर भाजपा और सिर्फ एक सीट पर कांग्रेस काबिज है। कांग्रेस की रामसिया भारती सिर्फ मलेहरा से विधायक हैं। ये भी लोधी समाज से हैं। दूसरी तरफ क्षेत्र की देवरी, रेहली, बंडा, पथरिया, दमोह, जबेरा और हटा में भाजपा का कब्जा है। वोटों के अंतर की दृष्टि से कांग्रेस ने मलेहरा में 21 हजार 532 वोटों के अंतर से जीत दर्ज की है जबकि भाजपा की सात सीटों में जीत का अंतर 2 लाख 77 हजार से ज्यादा है। लगभग ढाई लाख वोटों के अंतर को कांग्रेस कैसे कवर पाएगी, यह बड़ा सवाल है। हालांकि इनमें से गोपाल भार्गव और जयंत मलैया ने रेहली और दमोह में ही 1 लाख 24 हजार से ज्यादा की लीड ली है। भाजपा के राहुल को यह लीड मिलना मुश्किल है।
तीन जिलों में फैला है दमोह लोकसभा क्षेत्र
- दमोह लोकसभा क्षेत्र भौगोलिक दृष्टि से प्रदेश के तीन जिलों तक फैला है। इसके तहत दमोह जिले की चार विधानसभा सीटें पथरिया, दमोह, जबेरा और हटा आती हैं तो सागर जिले की तीन सीटें रेहली, बंडा और देवरी। एक विधानसभा सीट मलेहरा छतरपुर जिले में है, यह भी दमोह लोकसभा क्षेत्र का हिस्सा है। तीन जिलों में बंटा होने के कारण इस क्षेत्र में किसी एक नेता का असर नहीं है। इसका नतीजा यह कि यहां से बाहरी नेता भी जीतते रहे। 2014 और 2019 का चुनाव जीते प्रहलाद पटेल भी यहां के नहीं, नरसिंहपुर जिले के निवासी हैं। भाजपा ने इस बार उन्हें विधानसभा का टिकट दिया। अब वे प्रदेश सरकार में मंत्री हैं। इस बार भाजपा और कांग्रेस के प्रत्याशी क्षेत्र से, एक ही समाज के और आपस में मित्र एवं रिश्तेदार हैं। खास बात यह है कि एक बार 1989 में भाजपा के लोकेंद्र सिंह चुनाव जीते तो इसके बाद यह भाजपा का गढ़ बन गया। 1991 से 1999 तक लगातार चार चुनाव भाजपा के रामकृष्ण कुसमारिया जीते। प्रहलाद पटेल से पहले वर्ष 2004 में दमोह से चंद्रभान सिंह लोधी और वर्ष 2009 में शिवराज सिंह लोधी ने जीत दर्ज की।
दमोह में लोधी, अजा, कुर्मी, यादव समाज का दबदबा
- दमोह लोकसभा सीट लोधी बाहुल्य मानी जाती है हालांकि यहां सबसे ज्यादा 5 लाख से ज्यादा वोट अनुसूचित जाति वर्ग के हैं। लोधी समाज के मतदाताओं की तादाद तीन लाख के आसपास बताई जाती है। इनके दम पर ही यहां से लोधी समाज से सांसद बनता आ रहा है। हालांकि कुर्मी समाज के रामकृष्ण कुसमारिया भी दमोह से चार चुनाव जीते। क्षेत्र में कुर्मी समाज के मतदाताओं की तादाद डेढ़ लाख बताई जाती है। यादव मतदाता भी कुर्मियों के बराबर लगभग डेढ़ लाख ही हैं लेकिन इस समाज से कभी सांसद नहीं बना। क्षेत्र में ब्राह्मण लगभग 1 लाख और जैन समाज के मतदाता करीब 50 हजार बताए जाते हैं।
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